दिल मे दबी इच्छाओं के बीज का प्रस्फुटन है - दुनिया ख़तम हो रही है
बैतूल, छिंदवाड़ा: प्रशांत शैलके की रिपोर्ट
दिल मे दबी इच्छाओं के बीज का प्रस्फुटन है फ़िल्म
एक बीज धरती के गर्भ में छुपा होता है। अनुकूल परिस्थितियां उसमें अंकुरण कर उसे जमीन के बाहर प्रस्फुटित कर देती है। इसी तरह हर आदमी के दिल मे इच्छाओं का बीज होता है। इसे परिस्थितियां बाहर आने से रोकती है। पारिवारिक दायित्व, मजबूरियों में दबे आदमी के लिए इच्छाओं के इस बीज को अंकुरित होने देना संभव नहीं हो पाता। लेकिन एक ऐसा अवसर आता है जब वह जिंदगी को जी लेना चाहता है। खुशी का एक पल उसे फिर संघर्ष की आग में तपने का संबल देती है।
दिल मे दबी इच्छाओं के इस बीज को कई बार कुछ घटनाएं प्रस्फुटित होने में मदद करती है। दुनिया खत्म होने से पहले जिंदगी को जीने, अभावों को महसूस करने और इस दर्द के बीच खुशियों की एक किरण से जीवन को उजास से भरने की कहानी कहती है फ़िल्म दुनिया खत्म हो रही है।
मर्रामझिरी का नाम बैतूल से ट्रेन से यात्रा करने वालों के अपरिचित नहीं है। इस गांव के लोगों की कहानी के साथ बैतूल के स्थानीय कलाकारों ने करण कश्यप के साथ एक बेहतर प्रयास किया है। इस फ़िल्म को देखने के बाद लगता है कि सालों थियेटर की आंच में तपे लोगों का ताप है ये फ़िल्म। बेहतर अभिनय, बेहतर संवाद, अच्छा संगीत और उच्च कोटि की सिनेमेटोग्राफी इस फ़िल्म की जान है।
इस फ़िल्म के अभिनेता शिरीष सोनी से मिलना और उन्हें फ़िल्म में देखना दोनो अलग अनुभव है। इस शख्स को देखकर नही लगता कि जिसे पर्दे पर किसान के रूप में देख रहे है ये वही व्यक्ति है जो थोड़ी देर पहले जीन्स शर्ट में मिला था। सभी का अभिनय शानदार है लेकिन ये फ़िल्म नेता मौकाराम के किरदार में अमित कसेरा के शानदार अभिनय के लिए याद की जाएगी। अमित का अभिनय उनमें संभावनाओं को बताता है। एक महत्वाकांक्षी नेता के किरदार को उन्होंने जीवंत किया है। फ़िल्म का संपादन थोड़ा कमजोर है लेकिन जितने संसाधनों में फ़िल्म बनाई गई है उसके सामने इसे नजरअंदाज किया जा सकता है। विज्ञान की घटना को मनोरंजन से जोड़कर निर्देशक ने जीवन के संघर्ष को और उसमें छुपे आत्मबल को प्रस्तुत किया है। मौत के डर से अपनी इच्छाओं को पूरा करने जमीन बेच देने और खुशियों के चंद पल पाने के बाद जब दुनिया बच जाती है, भविष्य को लेकर पत्नी की चिंता पर किसान का संवाद है करेंगे क्या लकड़ियां बेचेंगे और जिएंगे। सरल शब्दों में दिल मे उतरने वाली बात है ये। जब संघर्ष से हारकर किसान आत्महत्या कर रहे हो तब ये संवाद उनमें जीने का जज्बा फिर जगाने का माद्दा रखता है।
फ़िल्म ये भी बताती है कि हर आदमी अंदर से वैसा नही होता जैसा दिखता है। मरने से पहले चोर चोरी छोड़ना चाहता है, शराब विक्रेता मुनाफा कम कर लेता है, महाजन जमीन के वास्तविक दाम से ज्यादा दे देता है। ये तीन छोटी घटनाएं है लेकिन इनके माध्यम से निर्देशक अपनी बात कहने में कामयाब रहा है। श्री श्री रविशंकर के आर्ट ऑफ लिविंग का थीम है वर्तमान में जियो। इसी वाक्य का फिल्मी प्रस्तुतिकरण है ये फ़िल्म ।