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इंसान की तरह जीता हूँ

हालात के मारे हार जाता हूँ कई बार

फिर भी खड़ा हो जाता हूँ हर बार, बार बार

इंसान हूँ, इंसान की तरह जीता हूँ

टूटा हुआ पत्थर नहीं जो फिर ना जुड़ पाऊँगा ।

तेज धूप के बाद ढलती हुई साँझ

आती जाती देख रहा बरसों से

इसी लिए चुन लेता हूँ हर बार नये

नहीं होता निराश टूटे सपनो से ।

क्या हुआ जो पत-झड़ में

तिनके सारे बिखर गये

चुन चुनके तिनके हर बार

नीड नया बनाऊँगा।

इंसान हूँ, इंसान की तरह जीता हूँ

टूटा हुआ पत्थर नहीं जो फिर ना जुड़ पाऊँगा।

                             डॉ. रूपेश जैन 'राहत'