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वो मेट्रो वाली लड़की

वो मेट्रो वाली लड़की

मुझे रोज़ सुबह मिलती है

मैं किसी पतंगे सा बदहवास

वो किसी फूल सा खिलती है

मैं धक्के-मुक्की से ही परेशान

वो किसी रोशनी सी बिखरती है


दरवाज़े के एक कोने पे खड़ा

मैं बस उसे ही देखे जाता हूँ

आज या कल कभी तो बात होगी

मन ही मन में सोचे जाता हूँ


उसके हाथों में सिमटी हुई किताब

कोमल उँगलियों में लिपटी हिज़ाब


वो लटों को बार बार सुलझाती है

मेरे सोए अरमानों में आग लगाती है


वो वहाँ न जाने किस बात पे मुस्कुराती है

और यहाँ मेरी तबियत खुश हो जाती है


वो फोन पे बातें किए जाती है

हुश्न की दावतें दिए जाती है


उसकी लाली,सुर्खी,आँखों का काजल

बिंदी,मेहंदी कर दे किसी को पागल


उझको देखते-देखते मैं अपने स्टेशन से आगे ही चला जाता हूँ

वो जहाँ उतरती है मैं भी वहीं उतर जाता हूँ


वो मुझे देखती भी है कुछ पता नहीं

मेरे बारे में क्या सोचती है कुछ पता नहीं

पर हाँ, उसक छूटा किताब तो कभी रुमाल

उसे रोज़ उसी सीट पर मिल जाता है

और चहक के जब मुझे देखती है

तो मेरा दिल खिल जाता है


- सलिल सरोज