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ख़लिश

जिस सहर पे यकीं था वो ख़ुशगवार न हुयी


देखो ये कैसी अदा है नसीब की


समझा था जिसे बेकार, वो बेकार न हुयी


मांगी थी जब तड़प रूह बेक़रार न हुयी


कहूँ अब क्या किसी से


देखकर माल-ओ-ज़र भी मिरि चाहतें तलबगार न हुयीं


सोचा था जिन्हे अपना वो साँसें मददगार न हुयीं


है अजीब अशआर क़ुदरत की


भूल से छोड़ा था जिसे हमने


वो निगाहें शिकबागार न हुयीं


          - डॉ. रूपेश जैन 'राहत'