मैं तुम्हारी यादों को
मैं तुम्हारी यादों को
अपनी सुबह की कॉफ़ी में
खूब देर तलक़ फेटता हूँ
अपने सिगरेट के डिब्बे के
आखिर सिगरेट के
आखिरी कश तक तुम्हें खीचता हूँ
अखबार के पहले पन्ने से
आखिरी पन्ने के हर्फ़ों के बीच
अपनी सुबहों में तुम्हें सींचता हूँ
आईने में देखूँ जब भी तो
कोई और भी नज़र आता है
तुम्हारे ख़्वाबों से आँखें मैं मींचता हूँ
यकीन करो
रोज़
मैं
कॉफी में
सिगरेट में
तुमको ही पीता हूँ
अख़बार में तुमको ही पढ़ता हूँ
सुबहों में तुम में ही जगता हूँ
आईने में तुमको ही मिलता हूँ
तुम
मेरी तलब हो
जो छोड़े नहीं छूटती है
रोके नहीं रुकती है
तोड़े नहीं टूटती है
जितना ही दूर करूँ खुद को तुमसे
उतनी ही पास चली आती हो
सुबहों-शाम और दिन-रात
साँस बनके मुझ में बस जाती हो
सलिल सरोज