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तमाशा मज़ेदार न था

वो खरीद लेता था सबके आँसू बेधड़क

वो इस ज़माने के लिए अभी समझदार न था


कुछ तो कमी थी जो तू किसी की न हो सकी

तेरा हुश्न कातिल तो था पर ईमानदार न था


जनता कैसे रुके सियासती महफिलों में

"साहेब" के भाषण में सब था , फिर भी असरदार न था


माँ अरमान बेचती रही हर गुजरती रात के साथ

पर कोई बच्चा उन जाएगी रातों का कर्ज़दार न था


बच्चियाँ लूट ली जाती है बीच बाज़ार में

और देखने वाले कहते है कि तमाशा मज़ेदार न था


सलिल सरोज