मैकदा और मीना अच्छा लगता है
प्यास कब से थी मरघटों सी मेरे लबों पे
तुझे पा के फिर से जीना अच्छा लगता है
तेरे चेहरे पे मुस्कान की कलियाँ यूँ ही खिलती रहें
तेरे लिए हज़ार ज़ख़्म भी सीना अच्छा लगता है
जो भी बूँद होके गुज़रे तेरे मदभरे लबों से
मुझे आवारा बादल सा उसे पीना अच्छा लगता है
तुम्हें सामने रखके देखूँ तो सब बदल जाता है
मैं बाखुदा हूँ,पर मैकदा और मीना अच्छा लगता है
मेरे नाम की नहीं तो न सही,पर ये तो सच है
तेरे मरहमी हाथों में रचा हिना अच्छा लगता है
सलिल सरोज