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सियासत मजहबी तराने गुनगुनाता रहा

छत,दरवाज़े और दीवार सब ढह गईं

और वो ख़्वाब के आशियाँ बनाता रहा


बस्तियाँ जल गईं उसकी आँखों के आगे

और वो परियों की दास्ताँ सुनाता रहा


जो दोस्त थे सबसे ही दूरियाँ बना ली

और रकीबों से मोहब्बत निभाता रहा


जो अच्छाइयाँ थी मझमें सब छिपा दी

और बुराइयाँ उँगलियों पे गिनाता रहा



थी कीमत बहुत ज्यादा ईमानदारी की

सो वो सरेआम अपनी बेईमानी भुनाता रहा



इंसाँ सब बँट गए हिन्दू और मुस्लिम में

सियासत मजहबी तराने गुनगुनाता रहा


- सलिल सरोज