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एक अरसे से मैं बुझा ही नहीं

एक अरसे से मैं बुझा ही नहीं

मैं कश्मीर हूँ,जलना ही मेरी नीयत है क्या


रावी तो कभी चेनाब से धुआँ उठता है

चिनार से पूछो ये अच्छी तबियत है क्या


सेब के बगीचे वो केसर की क्यारियाँ

खुशबू बिखेरती फ़ज़ा हो गई रुखसत है क्या


डल झील के शिकारों में गूँजता था जो जलतरंग

उस मौशिकी की आगोश में कोई दहशत है क्या


वो गुलमर्ग की चमचमाती बर्फ की परछाइयाँ

अब किसी ज़ुल्म की नाज़ायज़ दौलत हैं क्या


जो रहा है मेरे बदन का ताज सदा से

देखो तो जरा गौर से,खून से लथपथ है क्या


- सलिल सरोज