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किराए पे रह कर भी तो सदी गुजरती है

मैं उसके दिल में रहा,पर उसका हो न सका

किराए पे रह कर भी तो सदी गुजरती है


हर दिए से रोशनी आए ये कोई शर्त तो नहीं

पहाड़ों से छिटक कर भी रोशनी बिखरती है


आईना ही आखिरी मुंतजिर नहीं हुश्न का

धूल और मिट्टी में भी मूर्तियाँ सँवरती हैं


आसमाँ को तो कई दफे इक्तिला ही नही होता

जब धूप खिली हो तब भी बारिश बरसती है


ये धुआँ यूँ ही नहीं उठने लगा है यहाँ से

पास ही किसी हादसे में बच्चियाँ गरजती है


ये आँखों से बहे हैं 'सलिल',रंग जरूर लाएँगे

मंसूबों में आह न हो तो ये नहीं ढलकती हैं


- सलिल सरोज