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इन लहजों ने कुछ तो छिपा रक्खा है

इन लहजों ने कुछ तो छिपा रक्खा है

कहीं आँधी कहीं तूफाँ उठा रक्खा है


आँखों के दरीचे में काश्मीर दिखे हैं

हर अँगड़ाई में बहार बिछा रक्खा है


हुश्न का मजाल तो अब समझ में आया

दिल्ली कभी पंजाब जगा रक्खा है


तुम्हारे नाम की जिरह शुरू हुई जैसे ही

दोनों सदनों ने हंगामा मचा रक्खा है


जिस्म कहीं और शुमार होता ही नहीं

तूने सचमुच खुदा ही दिखा रक्खा है


                          - सलिल सरोज