चिर विद्रोहिणी चरित्रों का समागम - लक्ष्मीबाई, सुभद्रा, मणिकर्णिका और कंगना
बचपन से हम जो देखते है सुनते है वह मन मस्तिष्क में छा जाता है। कई बार कुछ नया होने पर भी हम उसे नहीं मिटा पाते जो बचपन में देखा था। स्मृतियों की वह छाप हमेशा मौजूद होती है। मनु, मर्णिकर्निका और लक्ष्मीबाई इस चरित्र को हमने खूब लडी मर्दानी वह तो झांसी वाली रानी थी कविता से जाना, समझा और इसे मन में बैठा लिया। कुछ दिनों पहले सोशल नेटवर्किंग पर लक्ष्मीबाई की असली फोटो कहकर जो फोटो डाली गई उससे इस महान शख्सियत की खूबसूरती को भी जानने का मौका मिला। Manikarnika Film Review

लक्ष्मीबाई को हमने सुभद्रा से जाना और मणिकर्णिका को कंगना ने बताया। झांसी की रानी लक्ष्मीबाई न तो सुभद्रा की कविता से शुरू होती है न कंगना की मणिकर्णिका से खत्म। सुभद्रा ने हरबोलों की गाथाओं को भुजाएं फड़काने वाली कविता में बदला तो कंगना ने इस चरित्र को इतिहास से निकालकर वर्तमान तक ला दिया है। झांसी की रानी कविता से अमर होने वाली सुभद्रा कुमारी चौहान और लक्ष्मीबाई दोनों की परिस्थितियां, चरित्र में जमीन आसमान का अंतर था। एक तलवार की योद्धा थी और दूसरी कलम की। जब कभी कविता यह कदंब का पेड मां होता यमुना तीरे पढता हूं तो लगता है कि क्या मां बेटे के स्नेह से ओतप्रोत ये कविता उन्हीं हाथों ने लिखी होगी जिसने खूब लडी मर्दानी लिखी। जिसकी हर पंक्तियों में तलवार की टकराहट और जूझती नारी के ओज को महसूस किया जा सकता है। झांसी की रानी को हमने सुभद्रा से जाना, सुभद्रा को महादेवी से जाना। युद्ध के मैदानों की गाथा लिखने वाली सुभद्रा बच्चों के साथ जेल यात्रा पर जाती थी। संघर्ष छूटे नहीं छूटता था। बच्चो को दूध की जगह चावल का माढ देना पडता था। इन परिस्थितियों में न तो उनका मन हारा न परिस्थितियों को अनूकूल बनाने समझौता स्वीकार किया। लक्ष्मीबाई का चरित्र भी कुछ ऐसा ही था। खुद को बचाने उन्होंने समझौता नहीं किया। देश के लिए जूझ गई। कंगना की मर्णिकर्णिका भी हरबोलों का आधुनिक रूप ही है। लक्ष्मीबाई चिर विद्रोहिणी कही गई। हाल के सालों में कंगना का व्यवहार, विवादों से नाता भी उन्हें इसी श्रेणी में रखता है। बडे परिवारों के बेजा दखल वाली फिल्म इंडस्ट्री में कंगना मठाधीशों से जूझ गई। चट्टानों से टकरा गई और कईयों को अपनी जुबान की नोक पर टिकाकर दहला दिया। ऐसे में कंगना जब मर्णिकर्णिका के रूप में परदे पर आती है तो हर दृष्य, हर संवाद और कंगना के अभिनय से हम लक्ष्मीबाई को महसूस कर सकते जिसे सुभद्रा ने बिजली सी कौंधती बताया था। उनके सीने की आग को अपने अंदर धधकता महसूस कर सकते है और उनकी पीडा, उनकी मजबूरी और उनके साहस को अपनी बाजुओं में फडकता देख सकते है। लक्ष्मीबाई जैसी चिर विद्रोहिणी को हम मणिकर्णिका मे स्वाभाविक विद्रोही कंगना में महसूस कर सकते है। झलकारी बाई के लिए अंकिता लोखंडे को कंगना ने लिया। अतुल कुलकर्णी और डैनी भी प्रभावी रहे। अरसे बाद सुरेश ओबेराय की आवाज का जादू फिर दिखा।

इस फिल्म के कुछ संवाद बेहद महत्वपूर्ण है। एक संवाद है बेटी जब खडी होती है, तभी विजय बडी होती है। बेटी बचाओ के लिए यह एक सशक्त संवाद है। बेटी नहीं बचाओगे तो बहु कहां से लाओगे के सामाजिक नारे का यह क्षत्रिय रूप है। महल छोडने के आदेश पर लक्ष्मीबाई का संवाद है जब कुछ नही होता है वही सबसे बडा होता है। इस संवाद से आत्मविश्वास संघर्ष के जज्बे को अपने अंदर महसूस कर सकते है। झांसी आप भी चाहते है और मै भी, फर्क सिर्फ इतना है कि आपको राज करना है और मुझे अपनो की सेवा करना है। लक्ष्मीबाई और गंगाधर राव के विवाह के दृश्य की भव्यता को शानदार सिनेमेटोग्राफी से देखा जा सकता है।
शंकर अहसान लाय के संगीत और आवाज के बीच सुखविंदर ने बोलो कब प्रतिकार करोगे में बेहद जोशिला गीता गाया है। मध्यप्रदेश के रीवा की प्रतिभा सिंह बघेल ने नैना चुगल खोर राजाजी को बेहतर अंदाज में गाया है। प्रसून जब गीत लिखते है तो लगता है कि शब्द मक्खन में डूबकर आ रहे है। राजाजी गाने को देखिए,
मन की रुनझुन छुप न पाए, खनक खनक खनके नैना,
बडी अजब है रीत प्रीत की, बिन बोले सब कुछ कहना
कुनकुनी सी छूप बिखरी, जाए रे मनवा कुहु कुहु बौराए रे।
ओ राजानी नैना चुगल खोर राजाजी।
सिंदुरी भोर नहीं ओर छोर बांधी कैसी ये डोर।
धडकन में ताल, सपने गुलाल किया कैसा हाल। बेहद शानदार लिखा हुआ गीत है।
मणिकर्णिका पूरी तरह कंगना की फिल्म है। कंगना ने इस फिल्म के हर दृश्य को जिया है। फिल्म कई सवाल भी खडे करती है। बताती है कि कैसे हम अपनों के कारण ही गुलाम रहे। इस फिल्म को देखने के बाद उन भारतीयों पर हमें गर्व होता है जो हमारे कल के लिए लडे। वहीं अंग्रेजों का साथ देकर देश का नुकसान करने वाले भारतीयों से घृणा होती है।बहरहाल इसका अंत महादेवी की उन्हीं पंक्तियां से करता हूं जो उन्होंने सुभद्रा कुमारी चौहान के जाने पर लिखी थी।
यहीं कहीं पर बिखर गई वह छिन्न विजय माला सी।
#प्रशांतशेलके
लक्ष्मीबाई को हमने सुभद्रा से जाना और मणिकर्णिका को कंगना ने बताया। झांसी की रानी लक्ष्मीबाई न तो सुभद्रा की कविता से शुरू होती है न कंगना की मणिकर्णिका से खत्म। सुभद्रा ने हरबोलों की गाथाओं को भुजाएं फड़काने वाली कविता में बदला तो कंगना ने इस चरित्र को इतिहास से निकालकर वर्तमान तक ला दिया है। झांसी की रानी कविता से अमर होने वाली सुभद्रा कुमारी चौहान और लक्ष्मीबाई दोनों की परिस्थितियां, चरित्र में जमीन आसमान का अंतर था। एक तलवार की योद्धा थी और दूसरी कलम की। जब कभी कविता यह कदंब का पेड मां होता यमुना तीरे पढता हूं तो लगता है कि क्या मां बेटे के स्नेह से ओतप्रोत ये कविता उन्हीं हाथों ने लिखी होगी जिसने खूब लडी मर्दानी लिखी। जिसकी हर पंक्तियों में तलवार की टकराहट और जूझती नारी के ओज को महसूस किया जा सकता है। झांसी की रानी को हमने सुभद्रा से जाना, सुभद्रा को महादेवी से जाना। युद्ध के मैदानों की गाथा लिखने वाली सुभद्रा बच्चों के साथ जेल यात्रा पर जाती थी। संघर्ष छूटे नहीं छूटता था। बच्चो को दूध की जगह चावल का माढ देना पडता था। इन परिस्थितियों में न तो उनका मन हारा न परिस्थितियों को अनूकूल बनाने समझौता स्वीकार किया। लक्ष्मीबाई का चरित्र भी कुछ ऐसा ही था। खुद को बचाने उन्होंने समझौता नहीं किया। देश के लिए जूझ गई। कंगना की मर्णिकर्णिका भी हरबोलों का आधुनिक रूप ही है। लक्ष्मीबाई चिर विद्रोहिणी कही गई। हाल के सालों में कंगना का व्यवहार, विवादों से नाता भी उन्हें इसी श्रेणी में रखता है। बडे परिवारों के बेजा दखल वाली फिल्म इंडस्ट्री में कंगना मठाधीशों से जूझ गई। चट्टानों से टकरा गई और कईयों को अपनी जुबान की नोक पर टिकाकर दहला दिया। ऐसे में कंगना जब मर्णिकर्णिका के रूप में परदे पर आती है तो हर दृष्य, हर संवाद और कंगना के अभिनय से हम लक्ष्मीबाई को महसूस कर सकते जिसे सुभद्रा ने बिजली सी कौंधती बताया था। उनके सीने की आग को अपने अंदर धधकता महसूस कर सकते है और उनकी पीडा, उनकी मजबूरी और उनके साहस को अपनी बाजुओं में फडकता देख सकते है। लक्ष्मीबाई जैसी चिर विद्रोहिणी को हम मणिकर्णिका मे स्वाभाविक विद्रोही कंगना में महसूस कर सकते है। झलकारी बाई के लिए अंकिता लोखंडे को कंगना ने लिया। अतुल कुलकर्णी और डैनी भी प्रभावी रहे। अरसे बाद सुरेश ओबेराय की आवाज का जादू फिर दिखा।
इस फिल्म के कुछ संवाद बेहद महत्वपूर्ण है। एक संवाद है बेटी जब खडी होती है, तभी विजय बडी होती है। बेटी बचाओ के लिए यह एक सशक्त संवाद है। बेटी नहीं बचाओगे तो बहु कहां से लाओगे के सामाजिक नारे का यह क्षत्रिय रूप है। महल छोडने के आदेश पर लक्ष्मीबाई का संवाद है जब कुछ नही होता है वही सबसे बडा होता है। इस संवाद से आत्मविश्वास संघर्ष के जज्बे को अपने अंदर महसूस कर सकते है। झांसी आप भी चाहते है और मै भी, फर्क सिर्फ इतना है कि आपको राज करना है और मुझे अपनो की सेवा करना है। लक्ष्मीबाई और गंगाधर राव के विवाह के दृश्य की भव्यता को शानदार सिनेमेटोग्राफी से देखा जा सकता है।
शंकर अहसान लाय के संगीत और आवाज के बीच सुखविंदर ने बोलो कब प्रतिकार करोगे में बेहद जोशिला गीता गाया है। मध्यप्रदेश के रीवा की प्रतिभा सिंह बघेल ने नैना चुगल खोर राजाजी को बेहतर अंदाज में गाया है। प्रसून जब गीत लिखते है तो लगता है कि शब्द मक्खन में डूबकर आ रहे है। राजाजी गाने को देखिए,
मन की रुनझुन छुप न पाए, खनक खनक खनके नैना,
बडी अजब है रीत प्रीत की, बिन बोले सब कुछ कहना
कुनकुनी सी छूप बिखरी, जाए रे मनवा कुहु कुहु बौराए रे।
ओ राजानी नैना चुगल खोर राजाजी।
सिंदुरी भोर नहीं ओर छोर बांधी कैसी ये डोर।
धडकन में ताल, सपने गुलाल किया कैसा हाल। बेहद शानदार लिखा हुआ गीत है।
मणिकर्णिका पूरी तरह कंगना की फिल्म है। कंगना ने इस फिल्म के हर दृश्य को जिया है। फिल्म कई सवाल भी खडे करती है। बताती है कि कैसे हम अपनों के कारण ही गुलाम रहे। इस फिल्म को देखने के बाद उन भारतीयों पर हमें गर्व होता है जो हमारे कल के लिए लडे। वहीं अंग्रेजों का साथ देकर देश का नुकसान करने वाले भारतीयों से घृणा होती है।बहरहाल इसका अंत महादेवी की उन्हीं पंक्तियां से करता हूं जो उन्होंने सुभद्रा कुमारी चौहान के जाने पर लिखी थी।
यहीं कहीं पर बिखर गई वह छिन्न विजय माला सी।
#प्रशांतशेलके