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माना वक़्त बुरा है तो मर जाएँ क्या

माना वक़्त बुरा है तो मर जाएँ क्या

अपनी ही निगाहों से उतर जाएँ क्या


हर चीज़ मेरे मुताबिक हो,जरूरी तो नहीं

इतने से ग़म में जाँ से गुज़र जाएँ क्या


मैंने जीने का वायदा किया है किसी से

मौत को देख वायदे से मुकर जाएँ क्या


फूल की तरह खिलने का माद्दा है मुझमें

बेकार ही तूफाँ में पत्तियों सा बिखर जाएँ क्या


अभी तो पाँव जमाए हैं मेरी हसरतों ने

कोई कुछ कहे तो जड़ से उखड़ जाएँ क्या


                                   - सलिल सरोज