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रुक्मणी की व्यथा

न राधा न मीरा, मैं हूँ रुक्मणी,
प्रेम न भक्ति, मर्यादा के नाम पर हूँ छली,
प्रेमियों की प्यारी राधा, भक्ति का उपमान है मीरा
सार्थक उसका जीवन जो थी वृषभान लली,
मैं अर्धांगनी कृष्णा की निरर्थक ही हूँ चली,
न मीरा न राधा मैं हूँ रुक्मणी।******

ले राधा का नाम कली कली पल्लवित हो जाती हैं,
मीरा भी ले नाम प्रभु का भक्ति रस पी जाती है,
मैं अर्धांगनी कृष्णा की, भक्ति प्रेम मैं न पली,
न मीरा न राधा, हूँ मैं रुक्मणी।********

मीरा सी भक्ति, राधा सा प्यार,
त्यागा महल मीरा ने, राधा ने दिल में बसाया था,
मैं अर्धांगनी कृष्णा की, कमी कहाँ रह जाती है,
अर्धांगनी बन मैंने भी छोड़ी बाबुल की गली,
न मीरा न राधा, मैं हूँ रुक्मणी……………

भक्ति मे कृष्ण की विष का प्याला पी डाला था,
बसा ह्रदय में कृष्णा के खुद को अमर कर डाला था,
में अर्धांगनी कृष्णा की साधारण नारी ही रही,
क्या कमी थी मेरे प्रेम में, जो तिनका तिनका हूँ जली।
न राधा न मीरा, में हूँ रुक्मणी।।।।।।।।।।।।।।

गीतांजली वार्ष्णेय