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फिर एकबार


यूँ ही कभी थककर एक बार,
जीवन की उलझनों से दूर,
जीना चाहती थी स्वच्छंद, एकबार।

चल पड़ी थामें प्रियतम का हाथ,
जीवन से मिलने छोड़ घरबार।
पहुँच गयी स्वप्न लोक में
झूल रही थी बाहों के झूले में,एकबार।

होकर भाव विभोर, ख़ुशबू थी चहुँ ओर,
मिल रही थी प्रियतम से जैसे चातक और चकोर।
कोयल कूक रही थी,पड़ रही थी फुहार,
मन मयूर हो आनंदित नाच रहा था एकबार।।

कम्बखत,कहाँ से आया एक तूफान,
डोरबेल बजी जैसे आया कोई मेहमान।
फिर वही दूधवाला,पेपर वाला,कामवाली की छुट्टी का पैगाम,
धड़ाम से आ गिरी हक़ीक़त की जमीं पर फिर एकबार।।।।।





गीतांजलि वार्ष्णेय
उ. प्रदेश, बरेली