बेड़ियों को तोड़कर ही बन सकते हैं अच्छा रंगकर्मीः भारतेंदु कश्यप
छिंदवाड़ा। नाट्यगंगा द्वारा आयोजित राष्ट्रीय ऑनलाइन एक्टिंग की पाठशाला में प्रसिद्ध रंगकर्मी और निर्देशक भारतेंदु कश्यप कलाकारों से रूबरू हुए। भारतेंदु नाट्य अकादमी लखनऊ से प्रशिक्षित हैं। साथ ही बहुत से अच्छे नाटकों का निर्देशन भी किया है। रंगमंच और आधुनिकता विषय पर बोलते हुए सबसे पहले आधुनिक या मॉडर्न शब्द पर बात की। सिर्फ नई तकनीक को अपना लेना ही आधुनिकता नहीं होती। सिर्फ अंग्रेजी होने से या पश्चिमी वस्त्रों को पहन लेने से ही आप मॉर्डन नहीं हो जाता।
आपको विचारों से भी आधुनिक होना पड़ेगा। जरूरी नहीं कि आप साइंस के विद्यार्थी हो तो मॉर्डन कहलाओगे। मॉर्डन तो आप तब कहलाओगे जब आपकी सोच भी साइंटिफिक होगी। हमारी मान्यताएं, परम्पराएं, हमारे पूर्वाग्रह और हमारी रूढ़ियां दरअसल वो बेड़ियां हैं जो हमें आधुनिक होने से रोकती हैं। यही मानसिक बेड़ियां आपको जात, पात, धर्म, रंग और लैंगिकता के आधार पर भेदभाव से जकड़े हुए हैं। दकियानूसी मानसिकता इंसान को पाखंडी बना देती है। भारतेंदु कश्यप ने पाषाण युग की बातों को स्लाइड शो के माध्यम से दिखाया। पाषाण युग के सुराग हमें पुरातात्विक खोजों और भित्तिचित्रों में मिलते हैं। शिकार करते आदिमानवों के इन चित्रों पर प्रकाश डालते हुए उन्होंने प्रश्न पूछा कि शिकार करने कौन जाता होगा?
जाहिर है शिकार एक सामूहिक कार्य होता था। जिसे समूह के सभी स्वस्थ लोग मिलकर करते थे जिनमें स्त्री और पुरूष दोनों ही शामिल थे, लेकिन वक्त में बदलाव के साथ स्त्रियों ने घर पर समय बिताना शुरू कर दिया। अतिथि के रूप में महिंदर पाल, मुकेश उपाध्याय, ब्रजेश अनय और विनोद विश्वकर्मा उपस्थित रहे। संचालन फैसल कुरैशी और आभार सचिन मालवी ने व्यक्त किया। कार्यशाला के निर्देशक पंकज सोनी, तकनीकि सहायक नीरज सैनी, मीडिया प्रभारी संजय औरंगाबादकर और मार्गदर्शक मंडल में वसंत काशीकर, जयंत देशमुख, गिरिजा शंकर और आनंद मिश्रा रहे।