क्या प्रदेश अध्यक्ष बनेंगे सर्बानंद सोनोवाल?

बीजेपी की टॉप लीडरशिप ने पांच साल पहले पार्टी में आए हिमंत को राजनीतिक हालात के मद्देनजर मुख्यमंत्री तो बना दिया, लेकिन उन्हें खुला मैदान नहीं देना चाहती और शक्ति संतुलन बनाए रखने के लिहाज से सोनोवान को राज्य की पॉलिटिक्स से दूर करना उचित नहीं समझती।
हिमंत बिस्व सरमा सीएम तो बन गए, लेकिन राजनीतिक गलियारों में जिस सवाल का जवाब अभी भी तलाशा जा रहा है, वह यह कि सर्बानंद सोनोवाल का आगे का रास्ता क्या होगा। खबर है कि वह केंद्र नहीं जाना चाहते हैं। उनकी ख्वाहिश असम की ही पॉलिटिक्स में बने रहने की है। उनके साथ प्लस पॉइंट यह है कि बीजेपी की टॉप लीडरशिप ने पांच साल पहले पार्टी में आए हिमंत को राजनीतिक हालात के मद्देनजर मुख्यमंत्री तो बना दिया, लेकिन उन्हें खुला मैदान नहीं देना चाहती और शक्ति संतुलन बनाए रखने के लिहाज से सोनोवान को राज्य की पॉलिटिक्स से दूर करना उचित नहीं समझती। राज्य की पॉलिटिक्स में सोनोवाल की भूमिका क्या हो, बड़ा सवाल यह भी था, लेकिन इस सवाल का जवाब तलाश लिया गया है। दरअसल प्रदेश अध्यक्ष रंजीत कुमार दास चुनाव जीतने के बाद हिमंत सरकार में मंत्री हो गए हैं। एक व्यक्ति-एक पद के सिद्धांत के तहत पार्टी उन्हें प्रदेश अध्यक्ष पद से हटा सकती है और इस पद पर सोनोवाल को नियुक्त कर सकती है। लेकिन हिमंत जानते हैं कि सोनोवाल का प्रदेश अध्यक्ष बनना राज्य में समानांतर पावर सेंटर स्थापित कर देगा, जो आने वाले वक्त में मुश्किल खड़ी कर सकता है। इसलिए वह अपने दिल्ली के ‘संपर्कों’ के जरिए सोनोवाल को केंद्र की राजनीति में स्थापित कराने की कोशिश में हैं। असम से राज्यसभा की एक सीट खाली भी है। उन्हें राज्यसभा भेजकर केंद्रीय मंत्री पद दिया जा सकता है या फिर संगठन में लगाया जा सकता है। वैसे कोरोना संक्रमण के नियंत्रण में आने के बाद केंद्रीय मंत्रिपरिषद में कुछ फेरबदल की संभावनाएं जताई भी जा रही हैं। चुनाव नतीजे आने के बाद असम में विपक्ष बिलकुल शांत पड़ गया है, लेकिन बीजेपी के अंदर ‘पावर’ का खेल स्थानीय राजनीति को दिलचस्प बनाए हुए है।
नजरें अब ओडिशा पर

हिमंत को सीएम बनाए जाने के बाद असम की राजनीति में जो उठापटक चली वह अपनी जगह, लेकिन बीजेपी में इस फॉर्म्युले को अन्य राज्यों में आजमाने को लेकर कोई दुविधा नहीं है। कोई आधा दर्जन ऐसे राज्य उसके लिए परेशानी का सबब बने हुए हैं, जहां वह पूरी कोशिश के बावजूद पांव नहीं जमा पा रही है। उसकी सबसे बड़ी वजह है कि वहां उसके पास प्रभावी नेतृत्व नहीं है। असम मॉडल की तर्ज पर पार्टी ने जिन तीन राज्यों में सबसे पहले होमवर्क शुरू किया है, उनमें ओडिशा, तेलंगाना और आंध्र प्रदेश शामिल हैं। ओडिशा को लेकर बीजेपी इसलिए बहुत ज्यादा उम्मीदों से भरी है कि 2019 के लोकसभा और विधानसभा चुनावों में वह वहां बीजू जनता दल के बाद दूसरे नंबर पर रही और कांग्रेस उससे बहुत पीछे हो गई है। लोकसभा चुनाव में बीजेपी को राज्य की आठ सीटों पर जीत मिली और उसका वोट प्रतिशत भी 38 फीसद को पार कर गया। विधानसभा चुनाव में भी उसका वोट प्रतिशत 32 फीसद पार था और राज्य में वह मुख्य विपक्षी दल के रूप में स्थापित हो चुकी है। कांग्रेस के पास राज्य में कई प्रभावी नेता हैं लेकिन पार्टी की मौजूदा स्थिति से वे बहुत निराश हैं, उन्हें वहां अपना कोई भविष्य नहीं दिख रहा है। बीजेपी को यह भी लग रहा है कि 2024 में जब ओडिशा के विधानसभा चुनाव हो रहे होंगे, तो नवीन पटनायक बतौर मुख्यमंत्री अपने पांच कार्यकाल पूरे कर चुके होंगे। इतने लंबे कार्यकाल की वजह से उस वक्त एंटी इंकम्बेंसी फैक्टर का प्रभावी होना स्वाभाविक होगा। इस वजह से बीजेपी लीडरशिप कई स्थानीय कांग्रेस नेताओं के संपर्क में बताई जा रही है, जिन्हें आगे कर वह सत्ता में पहुंचना चाहेगी।
यूपी के कांग्रेस नेता परेशान

बंगाल में जो कुछ हुआ, उसका सीधा असर यूपी के कांग्रेस नेताओं पर पड़ा है। उन्हें डर है कि चुनाव के बीच पार्टी कहीं यूपी का मैदान भी वैसे ही न खाली कर दे, जैसे उसने बंगाल में कर दिया था। इस बारे में पार्टी के एक राष्ट्रीय महासचिव का बयान भी आ चुका है कि ‘अगर कांग्रेस आक्रामक होकर चुनाव लड़ती तो कुछ सीटें तो जीती जा सकती थीं, लेकिन उससे बीजेपी को सत्ता में आने में मदद मिल जाती। हमारे लिए कुछ सीटें जीतने से ज्यादा महत्वपूर्ण बंगाल में बीजेपी को सत्ता में आने से रोकना था।’ यूपी में अगले साल के शुरुआती महीनों में विधानसभा चुनाव होने हैं। इतना तो साफ दिख रहा है कि कांग्रेस मुख्य लड़ाई में नहीं है। हालिया पंचायत चुनाव के नतीजों के जरिए भी उसकी तसदीक हो रही है। कांग्रेस नेताओं को यह डर सता रहा है कि अगर कहीं विधानसभा चुनाव के दौरान यूपी में भी कांग्रेस लीडरशिप को यह लगने लगा कि उसके आक्रामक होकर चुनाव लड़ने से बीजेपी सत्ता में आ जाएगी और उसने मैदान छोड़ दिया तो उनका भविष्य क्या होगा? शायद इसी डर का असर है कि अलग-अलग सीटों में प्रभावशाली माने जाने वाले कई कांग्रेसी नेता दूसरी पार्टियों के भी संपर्क में हैं। वैसे कांग्रेस की टॉप लीडरशिप इन दिनों यूपी के लिए एक वृहद गठबंधन बनाने के प्रयास में जुटी है, लेकिन उसका यह प्रयास इसलिए बहुत प्रभावी साबित नहीं होने वाला कि यूपी के दो सबसे बड़े क्षेत्रीय दल- एसपी और बीएसपी कांग्रेस के साथ गठबंधन करने से साफ इनकार कर चुके हैं।
मिला भड़ास निकालने का मौका

ज्योतिरादित्य सिंधिया के जरिए कांग्रेस में बगावत के बाद बीजेपी को मध्य प्रदेश में अपनी सरकार बनाने का मौका भले मिल गया हो, लेकिन पार्टी के अंदर आए कांग्रेसियों को मिल रहे महत्व को आसानी से हजम नहीं किया जा रहा है। राज्य की दमोह विधानसभा सीट के लिए हुए उपचुनाव में पार्टी की हार के बाद असहज बीजेपी नेताओं को भड़ास निकालने का मौका मिल गया है, जिसकी वजह से राज्य बीजेपी में उठापटक तेज हो गई है। हुआ यह कि ज्योतिरादित्य सिंधिया के साथ शुरुआत में जो दो दर्जन के करीब विधायक कांग्रेस से इस्तीफा देकर आए थे, उपचुनाव में उन सभी को टिकट देना बीजेपी की मजबूरी थी। उसकी कीमत पार्टी के उन नेताओं को चुकानी पड़ गई थी, जो उस सीट पर चुनाव लड़ते आए थे। चूंकि उस उपचुनाव में ज्यादातर सिंधिया समर्थक कांग्रेसी विधायकों ने जीत दर्ज कर ली, इसलिए मामले ने ज्यादा तूल नहीं पकड़ा था, लेकिन इसी महीने दमोह सीट के लिए आए नतीजे ने तस्वीर बदल दी। 2018 में भी यह सीट कांग्रेस ने जीती थी, लेकिन इस सीट से जीते कांग्रेसी विधायक ने बीजेपी जॉइन कर ली। उपचुनाव में बीजेपी ने उसे टिकट भी दिया, लेकिन सीट कांग्रेस ने ही जीती। हारे बीजेपी उम्मीदवार ने अपनी हार के लिए पुराने बीजेपी नेताओं को जिम्मेदार ठहरा दिया, जिसके बाद उन नेताओं के खिलाफ अनुशासनात्मक कार्रवाई शुरू हो गई। यहीं से पुराने बीजेपी नेताओं को अपनी भड़ास निकालने का मौका मिल गया है। कहा जा रहा है कि कांग्रेस से आने वाले नेताओं को जिस तरह से महत्व मिल रहा है, यह पार्टी के हित में नहीं है। दमोह से इसकी शुरुआत हो गई है। राजनीतिक गलियारों में माना जा रहा है कि निचले स्तर पर चल रही इस लड़ाई के असली निशाने पर कोई और नहीं, ज्योतिरादित्य सिंधिया ही हैं।
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