गडकरी की सफाई के क्या हैं मायने और बीजेपी को दूसरे शुभेंदु की तलाश क्यों?
गडकरी को यह ट्वीट करना पड़ा कि, ‘मैंने कोविड वैक्सीन के लिए सजेशन दिया था। मुझे नहीं पता था कि रसायन व उर्वरक मंत्री मनसुख मांडविया ने सरकार को पहले ही वैक्सीन का प्रॉडक्शन बढ़ाने के लिए सजेशन दे रखा है।
पिछले दिनों अपने एक बयान की वजह से मोदी कैबिनेट के सीनियर मिनिस्टर नितिन गडकरी को सफाई क्या देनी पड़ी, उसके बाद से राजनीतिक गलियारों में कई तरह के किस्से चल रहे हैं। कहा जा रहा है कि सोशल मीडिया पर जिस तरह से नितिन गडकरी को हेल्थ मिनिस्ट्री देने की मांग जोर पकड़े हुए है, उसके मद्देनजर गडकरी की सक्रियता शीर्ष स्तर पर पसंद नहीं की जा रही है। पिछले हफ्ते उन्होंने एक कार्यक्रम में यह सलाह दी कि, ‘यदि टीके की आपूर्ति के मुकाबले उसकी मांग अधिक होगी, तो इससे समस्या खड़ी होगी। सरकार दस और कंपनियों को लाइसेंस दे और उनसे रॉयल्टी भी ले। पहले देश में आपूर्ति हो और बाद में उत्पादन ज्यादा होने पर निर्यात करें।’ इस सलाह के फौरन बाद उनसे संपर्क किया गया। उस संवाद में जो कुछ भी हुआ हो, लेकिन उसके बाद गडकरी को यह ट्वीट करना पड़ा कि, ‘मैंने कोविड वैक्सीन के लिए सजेशन दिया था। मुझे नहीं पता था कि रसायन व उर्वरक मंत्री मनसुख मांडविया ने सरकार को पहले ही वैक्सीन का प्रॉडक्शन बढ़ाने के लिए सजेशन दे रखा है। उन्होंने मुझे फोन करके यह भी बताया कि भारत सरकार कोरोना वैक्सीन के उत्पादन के लिए 12 अलग-अलग कंपनियों और प्लांट्स के साथ संपर्क में है। मुझे नहीं पता था कि मंत्रालय मेरे सजेशन से पहले ही इस पर काम कर रहा है।’ इस ट्वीट के बाद ही किस्सागोई का सिलसिला शुरू हुआ। विपक्ष को भी यह कहने का मौका मिल गया कि नितिन गडकरी जैसे वरिष्ठ मंत्री को अगर अपनी ही सरकार के फैसलों की जानकारी नहीं होती, तो फिर उनके कैबिनेट में रहने से क्या फायदा? उधर गडकरी हैं कि उनकी मुस्कराहट में ही हर सवाल का जवाब छुपा होता है।
दूसरे ‘शुभेंदु’ की तलाश
नंदीग्राम में ममता को हरा देने के बाद बीजेपी के हौसले बहुत बुलंद हैं। पार्टी छह महीने के अंदर इसकी पुनरावृत्ति करने के लिए होमवर्क में जुट गई है। दरअसल ममता अभी विधायक नहीं हैं। उन्हें छह महीने के अंदर विधायक बनना होगा। ममता ने अपने एक विश्वासपात्र के जरिए भवानीपुर सीट खाली कराई है, जिसके बाद से यह उम्मीद बनी है कि वह इसी सीट से उपचुनाव लड़ सकती हैं। बीजेपी की पहली उम्मीद यह है कि कोरोना संक्रमण को लेकर जिस तरह के हालात हैं, उन्हें देखते हुए शायद ही छह महीनों के अंदर चुनाव हो सकें। अगर छह महीने के अंदर वह विधायक नहीं बन पाईं तो संवैधानिक संकट खड़ा होगा, उन्हें इस्तीफा देना होगा। बीजेपी का प्लान-बी यह है कि अगर छह महीने के अंदर उपचुनाव की स्थिति बन जाती है तो उस सीट के लिए किसी ‘शुभेंदु अधिकारी’ की तलाश अभी से की जाए, जो नंदीग्राम जैसा नतीजा दे सके। बीजेपी के रणनीतिकारों को लगता है कि अगर दूसरे चुनाव में भी ममता हार जाती हैं तो फिर मुख्यमंत्री बनने का उनका दावा नैतिक नहीं रह जाएगा। अपनी जगह वह किसी अन्य को अगर सीएम बनाती हैं तो वह बात नहीं रह जाएगी। ऐसे में बंगाल उसके लिए थोड़ा आसान हो जाएगा। बंगाल में अपने लिए इतने सारे अवसर देख रही बीजेपी के कई बड़े नेता सिर्फ बंगाल को लेकर लगातार होमवर्क में जुटे हैं। शुभेंदु अधिकारी ऐसे नेताओं की लिस्ट तैयार करने में जुटे हैं, जो भवानीपुर में ममता के लिए मुश्किल पैदा कर सकते हैं। टीएमसी में रहने की वजह से उन्हें कई अंदरूनी बातों का पता तो है ही।
जोड़ने की पहल या तोड़ने की
कांग्रेस ने दो नई समितियां बनाई हैं। एक तो कोरोना को लेकर है और दूसरी पांच राज्यों में मिली हार की समीक्षा करने को लेकर। कोरोना पर जो समिति बनी है, उसका नेतृत्व गुलाम नबी आजाद को सौंपा गया है। वहीं हार की समीक्षा करने को बनी समिति में बतौर सदस्य मनीष तिवारी को शामिल किया गया है। ये दोनों नाम चौंकाते इसलिए हैं कि दोनों नेता कांग्रेस के असंतुष्ट समझे जाने वाले ग्रुप-23 में शामिल हैं। इन दोनों नेताओं को अहम जिम्मेदारी मिलने के बाद इस सवाल का जवाब तलाशा जाना शुरू हो गया है कि कांग्रेस की टॉप लीडरशिप ने जी-23 से अपने रिश्ते बेहतर करने के नजरिए से उसके दो लोगों को अहम जिम्मेदारी दी है, या इन दोनों नेताओं को जी-23 से बाहर करने के लिए उन पर भरोसा जताया गया है? वैसे गुलाम नबी आजाद और मनीष तिवारी इन दिनों जिस तरह से नेतृत्व के प्रति भक्ति के भाव में दिख रहे हैं, उसमें लगता तो यही है कि वे अपने को जी-23 से बाहर कर लेना चाहते हैं। जी-23 के नेता भी शंका में हैं। हार की समीक्षा करने वाली समिति में ‘अपने’ मनीष तिवारी के शामिल होने के बावजूद वे यह भरोसा नहीं कर पा रहे हैं कि यह समिति किसी ठोस नतीजे पर पहुंचेगी। उनका यह डर बरकरार है कि पांच राज्यों की हार की समीक्षा के लिए जो समिति बनाई गई है, वह खानापूर्ति से ज्यादा कुछ नहीं है। जी-23 हर राज्य के लिए अलग-अलग समिति गठित किए जाने का पक्षधर है, लेकिन मनीष तिवारी एक समिति में जगह पाकर ‘संतुष्ट’ हो गए हैं, इसलिए वह कुछ बोल नहीं रहे हैं। उधर गुलाम नबी आजाद कितना बदले हैं, इसकी कसौटी यह मानी जा रही है कि वह अपने आप को कितने दिनों तक मोदी की तारीफ करने से रोक पा रहे हैं?
‘शर्मा जी’ पर रहस्य बरकरार
एके शर्मा, यूपी के मूल निवासी लेकिन गुजरात काडर के आईएएस रहे हैं। नौकरी के दौरान करीब बीस साल उनकी गिनती नरेंद्र मोदी के विश्वासपात्र अफसरों में होती रही। वह गुजरात से लेकर दिल्ली तक उनके साथ रहे। इसी साल जनवरी में उन्हें वीआरएस देकर यूपी के विधानपरिषद में भेज दिया गया, तभी से उनकी भूमिका को लेकर चर्चाओं का दौर जारी है। जब उन्हें विधानपरिषद भेजा गया था, तब यह कहा गया था कि उन्हें डेप्युटी सीएम बनाया जा सकता है, लेकिन उस वक्त ऐसा नहीं हो पाया। कोरोना की दूसरी लहर में एके शर्मा की यूपी के पूर्वांचल इलाके में सक्रियता देखने वाली रही। वह यूपी के इसी इलाके से आते हैं। योगी कैबिनेट के मिनिस्टर, बीजेपी के कई वरिष्ठ सांसद और विधायक कोरोना काल में इस बात का रोना रोते देखे गए कि उनकी सुनवाई नहीं हो रही है, वहीं राजनीति में महज पांच महीने पुराने एके शर्मा पूर्वांचल के जिलों में समीक्षा बैठक लेकर अधिकारियों को दिशा-निर्देश देते देखे गए। उनकी बैठक में जिले का हर बड़ा अफसर शामिल होता है और उनके दिशा-निर्देशों को अपनी डायरी में इस तरह नोट करता है, जैसे क्लास रूम में स्टूडेंट्स अपने टीचर की हर बात को नोट करते हैं। मोदी ने पिछले दिनों कोविड नियंत्रण में ‘वाराणसी मॉडल’ की तारीफ भी की जोकि पूर्वांचल का ही हिस्सा है। इन तमाम बातों के मद्देनजर राजनीतिक गलियारों में उनके मंत्री बनने की चर्चा एक बार फिर से जोरों पर है। लेकिन कुछ लोग हैं जो कह रहे हैं कि शर्मा जी को अगर मंत्री बनना होता तो कब के बन गए होते। उनके लिए तो उससे बड़ी भूमिका तलाशी जा रही है। अब मंत्री से बड़ी भूमिका क्या हो सकती है? यही तो यक्ष प्रश्न है।
from https://ift.tt/3oKBKD9 https://ift.tt/2EvLuLS