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क्या केरल के CPM 'फार्म्युले' से देश के दूसरे दलों को भी सीख लेनी चाहिए?

तिरुवनंतपुरम केरल में इस बार मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी ने दो नए प्रयोग किए। एक प्रयोग चुनाव से पहले टिकटों के बंटवारे में किया और दूसरा प्रयोग बहुमत हासिल करने के बाद नई सरकार के गठन में किया। पहला प्रयोग यह था कि जो लगातार दो बार से विधायक हो रहे थे, उन्हें टिकट नहीं दिया, उनकी जगह नए लोगों को मौका दिया। इसके पीछे उनका तर्क यह था कि विधानसभा क्षेत्र स्तर पर पार्टी नई लीडरशिप तैयार करना चाहती है। कई-कई बार से लगातार विधायक होते आ रहे नेताओं को ही टिकट देते रहने से ग्रासरूट कार्यकर्ता हतोत्साहित होते हैं। दूसरा प्रयोग यह किया कि उन्होंने नई सरकार के गठन में मुख्यमंत्री को छोड़कर किसी भी पुराने मंत्री को कैबिनेट में शामिल नहीं किया। तर्क यह है कि सरकार किसी मंत्री के चेहरे से नहीं चलती बल्कि पार्टी की नीतियों से चलती है। पार्टी की नीतियों के क्रियान्वयन कराने का जिम्मा मुख्यमंत्री का होता है। सीपीएम का पहला प्रयोग कामयाब रहा। नए लोगों के टिकट देने के बावजूद पार्टी ने लगातार दूसरी बार बहुमत हासिल करने में कामयाबी हासिल कर ली। दूसरा प्रयोग कितना कामयाब होता है, यह वक्त बताएगा लेकिन इन दोनों प्रयोगों ने अलग-अलग राज्यों में अलग-पार्टियों के उन तमाम नेताओं के लिए 'उम्मीद की खिड़की' खोल दी है जो लम्बे वक्त से अपना 'नंबर' आने के इंतजार में बूढ़े हो चुके हैं या होने की ओर बढ़ रहे हैं? क्या दूसरे दल भी आजमाएंगे? राजनीतिक दलों के दूसरी, तीसरी कतार के नेताओं के बीच यह सवाल इन दिनों बहस का विषय बना हुआ है कि क्या उनकी पार्टी भी केरल के सीपीएम के फार्म्युले को आजमाएगी? बेशक उन्हें भी आजमाना चाहिए। अगर वह ऐसा करती हैं तो उन्हें फायदा ही होगा। पहला फायदा तो यह होगा कि नेतृत्व की एक नई पौध तैयार होगी। कुछ सीमित लोगों पर पार्टी की निर्भरता खत्म होगी। अभी तक देखने में यह आया है कि क्षेत्र विशेष में पार्टियों की निर्भरता चेहरे विशेष पर है। चेहरा विशेष की प्राथमिकता पहले खुद और उसके बाद परिजन को लेकर होती है। ऐसे अनगिनत उदाहरण मौजूद हैं, जिसमें ग्राम पंचायत, क्षेत्र पंचायत, जिला पंचायत के तक के पदों पर भी विधायक के ही परिजन काबिज हैं। इसके बाद यह चेहरे अपनी ही पार्टी से प्रेशर पॉलीटिक्स शुरू कर देते हैं। अपनी शर्त के न माने जाने या हवा का रुख पहचानते हुए जब ये चेहरे विशेष किसी दूसरी पार्टी का रुख करते हैं तो फिर क्षेत्र विशेष में पार्टी को फौरी तौर पर विकल्प खड़ा करना मुश्किल हो जाता है। पार्टियों को दूसरा बड़ा फायदा यह होगा कि उनके कॉडर में एक नया उत्साह आएगा। लगातार कई-कई बार से चुनाव जीत रहे विधायकों के क्षेत्र में कॉडर यह मान लेता है कि टिकट तो उसे ही मिलेगा जो लगातार जीत रहा है। कॉडर के निराश होने का नतीजा यह होता है कि लगातार जीत दर्ज करने वाले विधायक क्षेत्र विशेष में अपने प्रति प्रतिबद्धता रखने वाले कार्यकर्ता तैयार कर लेते हैं, जिनका पार्टी की नीतियों और सिद्धांतों से कोई लेना देना नहीं होता। मुश्किल क्या खड़ी हो सकती है? इसमें कोई शक नहीं कि राजनीतिक पार्टियों के लिए अपने-अपने राज्यों में इस फार्म्युले को अपनाने में मुश्किल भी खड़ी होंगी। पार्टियां उन मुश्किलों का सामना करने का साहस दिखा पाएंगी या नहीं, यह भी अहम सवाल है। बिहार कांग्रेस के प्रवक्ता आनंद माधव कहते हैं- 'किसी भी पार्टी के अच्छे प्रयोगों को आजमाने में कोई हर्ज नहीं होना चाहिए लेकिन उनकी कामयाबी पार्टियों के अपने स्वभाव और राज्य विशेष के राजनीतिक परिदृश्य पर निर्भर करेगी। यह जरूरी नहीं होता कि कोई दवा किसी एक व्यक्ति को फायदा करे, वही दवा दूसरे व्यक्ति को भी फायदा कर जाए।' आनंद माधव पार्टी के 'स्वभाव' और 'राज्य के राजनीतिक परिदृश्य' की तरफ जो इशारा करते हैं, उसका भावार्थ यह है कि कम्युनिस्ट नेताओं से यह उम्मीद नहीं की जा सकती कि वे अपना टिकट कटने से या मंत्रिमंडल में जगह न मिलने से बागी हो जाएंगे। अपनी कोई अलग पार्टी बना लेंगे या किसी भी विचारधारा की पार्टी के साथ चले जाएंगे। जबकि दूसरी पार्टियों के सामने यह जोखिम हमेशा बना रहेगा। दूसरे, केरल के राजनीतिक परिदृश्य की तुलना यूपी-बिहार जैसे राज्यों से नहीं की जा सकती। वहां पर जातीय समीकरण भी बहुत मायने रखते हैं और व्यक्तिगत दबदबा भी। किसी जाति विशेष के बड़े नेता का अगर टिकट कट जाता है तो वहां जाति विशेष की प्रतिष्ठा से जुड़ जाता है लेकिन नई इबारत लिखने के लिए पार्टियों को लीक से हटने का साहस तो दिखाना ही होगा। राष्ट्रीय लोकदल के राष्ट्रीय सचिव अनिल दुबे कहते हैं- 'अगर नया प्रयोग किया ही जा रहा है तो वह केवल विधायकों तक सीमित नहीं होना चाहिए। यह सरकार का नेतृत्व करने वालों पर भी लागू होना चाहिए। यह तय होना चाहिए कि किसी भी सीएम का कार्यकाल दो बार से ज्यादा का नहीं होगा।' किस्सागोई भी चल रही है वैसे ने जो नया प्रयोग किया है, उसको लेकर एक राजनीतिक कहानी भी सियासी गलियारों में सुनी और सुनाई जा रही है। कहा जा रहा है कि केरल के सीएम पिनराई विजयन यह नहीं चाहते हैं कि केरल में उनका कोई विकल्प खड़ा हो। इस वजह से उन्होंने पहले 'लगातार दो बार से जीत रहे विधायकों को टिकट नहीं' वाली शर्त जुड़वा कर उन नेताओं को हाशिए पर कर दिया, जो उनके लिए निकट भविष्य में मुश्किल खड़ी कर सकते थे और उसके बाद नई सरकार में पुराने सभी मंत्रियों को ड्रॉप करने के फैसले से उनके बचे-खुचे विरोधी भी किनारे लग गए। लेकिन पार्टी की लीडरशिप इस किस्से से सहमत नहीं है। उसका कहना है कि 'सीपीएम में कोई भी व्यक्तिगत रूप से इतना मजबूत नहीं होता कि वह अपने व्यक्तिगत हित के लिए नीतिगत फैसले करा सके। चुनाव से पहले और चुनाव के बाद जो भी फैसले हुए, वह पार्टी के नीतिगत फैसले हैं।' वैसे सीपीएम का यह प्रयोग भले ही मजबूरी में किया हो लेकिन राजनीति में एक ताजा हवा के झोके की मानिंद है।


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