पॉलिटॉकः प्रधानमंत्री किस तरह धर्म संकट से बचाएंगे अपने मित्र नीतीश कुमार को
नीतीश का धर्मसंकट केंद्रीय मंत्रिमंडल के विस्तार की संभावनाओं के बीच का धर्मसंकट बढ़ता जा रहा है। ऐसी उम्मीद की जा रही है कि केंद्रीय मंत्रिपरिषद में जेडीयू कोटे से दो मंत्री शामिल किए जा सकते हैं। लेकिन दो की यही संख्या नीतीश कुमार को परेशान किए हुए है। उनके करीबी लोगों के मुताबिक नीतीश का कहना है कि दो मिलने से अच्छा है, एक भी न मिले। दो सीटें मिलने पर यह तय करना मुश्किल हो जाएगा कि इनके लिए किसके नाम प्रधानमंत्री को भेजे जाएं। जिन दो लोगों का लंबे समय से केंद्रीय मंत्रिपरिषद में शामिल होने का दावा है, उनमें एक आरसीपी सिंह और दूसरे ललन सिंह हैं। इन दोनों की गिनती नीतीश कुमार के भरोसेमंद सहयोगियों में होती है। इस वक्त जब नीतीश कुमार अपनी पार्टी के वोट बैंक को विस्तार देने में लगे हैं, तो उनकी प्राथमिकता अतिपिछड़ा और अतिदलित को प्रतिनिधित्व देने की है। लेकिन उनके लिए अपने इन पुराने सहयोगियों को ना कर पाना आसान नहीं है। इसीलिए नीतीश चाहते हैं कि उन्हें केंद्रीय मंत्रिपरिषद में पांच सीटें मिलें, जिससे इन दो के अलावा तीन अतिपिछड़े और अतिदलित जातियों के सांसदों को भी प्रतिनिधित्व दिया जा सके। लेकिन अगर पांच सीटें नहीं मिलती हैं तो एक भी न मिले ताकि पुराने सहयोगियों की भी नाराजगी से बचा जा सके और पिछड़ी और अतिदलित जातियों की उपेक्षा का आरोप भी न लगने पाए। नीतीश ने अपनी इच्छा से प्रधानमंत्री को अवगत करा दिया है। अब देखने वाली बात यह है कि प्रधानमंत्री अपने मित्र नीतीश कुमार को किस तरह धर्म संकट से बचाते हैं। अहमद बिन सब सून कांग्रेस के क्षत्रपों का अब दिल्ली आना कम हो गया है। दिल्ली न आने की वजह बिल्कुल अलग किस्म की है। यहां उनका सबसे पसंदीदा अड्डा हुआ करता था अहमद पटेल का घर। अहमद पटेल से मुलाकात हो जाए तो उसके बाद कहीं और जाने, किसी और से मुलाकात करने की जरूरत ही नहीं रहती थी। उन्हीं के जरिए सारी जानकारी हो जाती थी कि कांग्रेस के अंदर क्या कुछ चल रहा है या क्या कुछ होने वाला है? अब उनके न रहने पर कोई ऐसा 'सिंगल विंडो' वाला शख्स कांग्रेस में रहा नहीं। अब दिल्ली में जो बाकी नेता हैं, उनके पास भी उतनी ही जानकारी रहती है, जितनी बाकी सभी के पास। दिल्ली न आने की पहली वजह तो यह हो गई। दूसरी यह कि पार्टी के जो टॉप थ्री लीडर हैं, अव्वल तो उनसे मुलाकात का टाइम मिल पाना ही मुश्किल होता है और अगर टाइम मिल भी जाए तो संवाद 'वन-वे' होता है। लीडरशिप की तरफ से सिर्फ सुना जाता है, कुछ बोला नहीं जाता। ऐसे में क्षत्रप 'अपडेट' नहीं हो पाते। तीसरी वजह यह है कि यह तय कर पाना मुश्किल हो गया है कि 'टॉप थ्री' लीडर्स के मन में क्या चल रहा है? ऐसे में क्षत्रप अपने-अपने राज्य में बने रहने में ही अपनी भलाई देख रहे हैं। वैसे कांग्रेस के गलियारों में चर्चा यह है कि इस वक्त 'मैडम' के दरबार में कमलनाथ की पहुंच बढ़ी है, वह अपनी ओर से उन्हें कुछ सलाह भी दे रहे हैं। लेकिन वह अपने को अहमद पटेल की भूमिका के लिए इसलिए तैयार नहीं कर रहे हैं क्योंकि वह मध्य प्रदेश छोड़ना नहीं चाहते और 2023 को लेकर उन्होंने राज्य से बहुत सारी उम्मीदें पाल रखी हैं। किस्सा कुर्सी का यूपी में केशव मौर्य की नाराजगी दूर करने में पूरी बीजेपी इसलिए लगी हुई है कि वह अतिपिछड़ा वर्ग से आते हैं और यूपी की सियासत में इसकी बड़ी भूमिका होती है। केशव मौर्य 2017 में भी सीएम पद के उम्मीदवार थे और 2022 में भी वह अपने को उम्मीदवार मान रहे हैं। इसीलिए उनकी कोशिश है कि पार्टी लीडरशिप 2022 के चुनाव के लिए पहले से किसी को सीएम का चेहरा घोषित न करे, बल्कि यह ऑप्शन बाद के लिए छोड़ दे, जैसा कि असम में किया गया था। बीते दिनों दिल्ली से लेकर लखनऊ तक का जो घटनाक्रम रहा, उससे केशव मौर्य के तेवर में कोई फर्क नहीं आया। हालांकि संघ की सलाह पर सीएम योगी ने केशव मौर्य के घर जाकर उन्हें खुश करने की भी कोशिश की। लेकिन उससे कुछ खास फर्क नहीं पड़ा। केशव मौर्य की अति सक्रियता योगी कैंप को असहज किए हुए है। केशव मौर्य संगठन के लोगों को बुलाकर मुलाकात कर रहे हैं, उनकी समस्याएं सुन रहे हैं। उन्होंने अपने आवास पर जनता दर्शन कार्यक्रम भी आयोजित करना शुरू कर दिया है। इसमें वह आम लोगों से संवाद करते हैं। इससे उनके पक्ष में सकारात्मक माहौल बन रहा है। राजनीति में संकेत बहुत मायने रखते हैं। चर्चा तो यहां तक है कि केशव मौर्य से मुलाकात करने आने वालों में पिछड़ी जाति के बीजेपी विधायकों की संख्या बढ़ी है। योगी की कैबिनेट में अतिपिछडी जाति से आने वाले एक मंत्री स्वामी प्रसाद मौर्य के बयान के भी राजनीतिक निहितार्थ निकाले जा रहे हैं, जिसमें उन्होंने कहा है कि यूपी का अगला सीएम कौन होगा, यह बात चुनावी नतीजे आने के बाद केंद्रीय नेतृत्व तय करेगा। उधर योगी चाहते हैं, आम धारणा यह बने कि अगले मुख्यमंत्री भी वही होंगे। 'चेयरमैन' मुकुल बंगाल में मुकुल रॉय की टीएमसी में वापसी हो चुकी है। ममता बनर्जी की पार्टी में बीजेपी के जिन अन्य विधायकों के आने की बात थी, उन्हें अभी यह कह कर रोका गया है कि छिटपुट विधायकों के आने से विधानसभा की सदस्यता जाने का खतरा रहेगा। इसलिए अब अगला दल-बदल तभी हो, जब इतने विधायक तैयार हो जाएं कि दल-बदल विरोधी कानून प्रभावी न होने पाए। बंगाल का जो ताजा घटनाक्रम है, वह यह है कि ममता, मुकुल रॉय को ऐसा पद देना चाहती हैं, जो उनकी गरिमा के अनुकूल हो। अभी उन्हें पद देने में इसलिए मुश्किल आ रही है कि वह कागज पर अभी भी बीजेपी के विधायक हैं। उन्होंने विधानसभा की सदस्यता से अभी इस्तीफा नहीं दिया है। ऐसी चर्चा है कि उन्हें लोक लेखा समिति का चेयरमैन बनाया जा सकता है। यह पद उन्हें इसलिए भी मिल सकता है कि सदन की परंपरा के अनुसार यह पद विपक्ष को दिया जाता रहा है। चूंकि वह विधानसभा के रेकॉर्ड में अभी भी बीजेपी के विधायक बने हुए हैं, इस वजह से ममता उन्हें यह पद देकर सदन की परंपरा का निवर्हन भी कर सकती हैं। ममता को उनके विधायक पुत्र का भी समायोजन करना है। इसमें भी यही दिक्कत आ रही है कि उन्होंने अभी तक विधानसभा की सदस्यता से इस्तीफा नहीं दिया है। इसलिए सदन के रेकॉर्ड में वह बीजेपी के ही विधायक माने जा रहे हैं। देखने वाली बात होगी कि ममता उनके लिए क्या रास्ता तलाश करती हैं। सरकार में पद तो उन्हें भी देना ही पड़ेगा।
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