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कांग्रेस नेताओं को चुनावों की नहीं, राहुल के फॉलो या अनफॉलो करने की फ्रिक

कांग्रेस नेताओं को चुनावों की नहीं, राहुल के फॉलो या अनफॉलो करने की फ्रिक

जिन लोगों को राहुल फॉलो करते हैं, पार्टी के अंदर उनका ग्राफ ऊंचा माना जाता है, उनकी गिनती राहुल के भरोसेमंद सहयोगियों में होती है, और उसी के मद्देनजर अन्य पार्टी जन उन्हें महत्व देते हैं। जिन लोगों को अनफॉलो कर दिया है, पार्टी के अंदर उनका ग्राफ अचानक गिर गया है।

अगले आठ महीनों के अंदर पांच राज्यों के चुनाव हैं और अगर कांग्रेस के नेता करने पर आ जाएं तो उनके पास काम ही काम हो जाए। लेकिन कांग्रेस के वरिष्ठ नेताओं का जो ‘इनर सर्किल’ है, वहां इस वक्त सभी अपनी सांस रोके राहुल गांधी की नई ‘ट्विटर नीति’ का इंतजार कर रहे हैं। इन दिनों उनके लिए सबसे अहम यह देखना है कि राहुल गांधी ट्विटर पर किसे फॉलो करते हैं और किसे अनफॉलो? हुआ यूं कि राहुल गांधी ने पिछले दिनों कई लोगों को अनफॉलो कर दिया, जिसमें उनके कई दोस्त भी शामिल हैं। उसके बाद ही पार्टी में हड़कंप मच गया। फिर यह बात सामने आई कि राहुल गांधी अपने लिए एक ट्विटर नीति बना रहे हैं, जिसके अनुसार ही वह ‘फॉलो’ करेंगे और बाकी को अनफॉलो कर देंगे। यह खबर आते ही कांग्रेस के वरिष्ठ नेताओं की सांस ऊपर-नीचे होने लगी है। सभी को इस बात का इंतजार है कि वह किन-किन को फॉलो करते हैं और किस-किस को अनफॉलो। वैसे तो सोशल मीडिया पर कौन किसे फॉलो करता है, यह उसकी निजी इच्छा का सवाल माना जाना चाहिए, लेकिन कांग्रेस के अंदर यह ‘ग्राफ’ तय करने का फॉर्म्युला है। जिन लोगों को राहुल फॉलो करते हैं, पार्टी के अंदर उनका ग्राफ ऊंचा माना जाता है, उनकी गिनती राहुल के भरोसेमंद सहयोगियों में होती है, और उसी के मद्देनजर अन्य पार्टी जन उन्हें महत्व देते हैं। जिन लोगों को अनफॉलो कर दिया है, पार्टी के अंदर उनका ग्राफ अचानक गिर गया है। जिन्हें अभी और अनफॉलो करेंगे, उनका भी यही हश्र होना है। जिन्हें फॉलो कर लेंगे, जाहिर कि उनका ग्राफ चढ़ जाएगा। पार्टी में जब सब कुछ ‘ग्राफ’ से ही चलना है तो सभी को अपने लिए फिक्र होना स्वाभाविक है। रही बात पांच राज्यों के चुनाव की, तो चुनाव तो होते ही रहते हैं।



खन्ना जी के ‘डर’ की वजह
खन्ना जी के ‘डर’ की वजह

यूपी में इन दिनों जबरदस्त उठापटक देखने को मिल रही है। जितने मुंह, उतनी बात। इन सबके बीच वहां के एक वरिष्ठ मंत्री सुरेश खन्ना का ‘डर’ राजनीतिक गलियारों में चर्चा का विषय बन गया। हुआ यूं कि उनका नाम भी वहां मुख्यमंत्री पद की रेस में गिना जाने लगा। पहले तो उन्होंने चार जून को एक ट्वीट करके कहा, ‘मेरे नाम लेकर जो प्रचार किया जा रहा है, वह बहुत ही घटिया शरारत है, इसको तत्काल बंद किया जाए।’ इसके एक दिन बाद मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ जन्मदिन था। उन्होंने मुख्यमंत्री को शुभकामनाएं देने के लिए जितने भारी भरकम शब्द हो सकते थे, उनका चयन किया और लिखा, ‘मान्यवर, जन्मदिन के शुभ प्रभात पर जब खोलो नैनों के द्वार, सौ-सौ सूरज साथ खड़े हों लेकर ज्योति शक्ति भंडार। यशस्वी और तेजस्वी भविष्य के लिए मेरी हार्दिक शुभकामनाएं।’ इसके बाद से ही राजनीतिक गलियारों में यह कौतूहल का विषय बना कि मीडिया में अपना नाम चलने से खन्ना इतना डर क्यों गए हैं? कई लोग इस राय के हैं कि जिन दिनों सरकार के नेतृत्व परिवर्तन की बात चल रही थी, उन्हीं दिनों उनकी पार्टी के कुछ बड़े नेताओं से मुलाकात हुई थी। उनके दिल्ली जाने की बात भी कही गई। ये सारी बातें सीएम तक भी पहुंचीं, बस खन्ना यहीं से डर गए। वह दिल्ली जाने और नेताओं से मुलाकात की बात को भी सिरे से खारिज कर रहे हैं। अपने को बेकसूर बताने और योगी के हितैषी होने के लिए उनसे जितना भी संभव हो पा रहा है, वह कर रहे हैं। लेकिन पॉलिटिक्स में कोई किसी पर सहज विश्वास नहीं करता, इसलिए यह चर्चा भी आम है कि बगैर चिंगारी के धुंआ नहीं होता।



श्रीधरन के ‘एडजस्टमेंट’ की फिक्र
श्रीधरन के ‘एडजस्टमेंट’ की फिक्र

केरल विधानसभा चुनाव से ऐन पहले मेट्रो मैन के नाम से मशहूर श्रीधरन का बीजेपी में जाना सबको चकित कर गया था। बीजेपी को उम्मीद थी कि श्रीधरन के आने से राज्य में पार्टी को चमक मिलेगी, लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं हो पाया और खुद श्रीधरन भी चुनाव हार गए। लेकिन पार्टी की टॉप लीडरशिप उन्हें अपने साथ बनाए रखना चाहती है, इसलिए उनके बेहतर समायोजन का रास्ता तलाशा जा रहा है। कहा जा रहा है कि जल्दी यह तलाश पूरी हो सकती है। 2015 में दिल्ली में अरविंद केजरीवाल का मुकाबला करने के लिए बीजेपी लीडरशिप मशहूर आईपीएस अधिकारी रहीं किरण बेदी को लेकर आई थी। दिल्ली में उन्हें चुनाव भी लड़वाया गया, लेकिन उन्हें भी हार का सामना करना पड़ा। इसके बाद बीजेपी ने उन्हें पुडुचेरी का उपराज्यपाल बनाया था। बीजपी के गलियारों में कहा जा रहा है कि ऐसे लोगों का एडजस्टमेंट जरूरी हो जाता है क्योंकि ये लोग नॉन पॉलिटिकल फील्ड से आते हैं और एक विशिष्ट वर्ग में पार्टी को नई पहचान देते हैं। अगर उन्हें पार्टी में लिया गया और चुनावी राजनीति में कामयाब न होने पर उन्हें तवज्जो न दी गई तो भविष्य में विशिष्ट क्षेत्र के नामचीन चेहरों को पार्टी से जोड़ पाना थोड़ा मुश्किल हो जाएगा। इसलिए उनके बीच में यह विश्वास पैदा करना जरूरी होता है कि अगर वे चुनावी राजनीति में कामयाब नहीं हुए तो भी पार्टी उन्हें भुलाएगी नहीं। वे इसी भरोसे से पॉलिटिक्स में आते हैं। यानी श्रीधरन के समायोजन के बाद जल्दी ही जिन पांच राज्यों में चुनाव होने हैं, वहां के भी कुछ ‘विशिष्टजनों’ के बीजेपी में आने की खबर मिल सकती है। पार्टी ने दरवाजे खोल रखे हैं।



शायर को स्वीकारें या नहीं?
शायर को स्वीकारें या नहीं?

इमरान प्रतापगढ़ी एक पेशेवर शायर हैं। 2014 में मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद उनकी शायरी मोदी विरोध पर केंद्रित हो गई। वह कांग्रेस को कुछ ऐसा भाए कि 2019 के चुनाव में कांग्रेस ने उन्हें यूपी के मुरादाबाद से टिकट भी दे दिया। हालांकि इस मुस्लिम बहुल सीट पर उन्हें मुंह की खानी पड़ी और उनकी जमानत तक जब्त हो गई। लेकिन कांग्रेस लीडरशिप ने इससे भी कोई सबक नहीं लिया। पिछले दिनों उन्हें अल्पसंख्यक प्रकोष्ठ का चेयरमैन बना दिया। उनके चेयरमैन बनने के बाद पार्टी के अंदर से यह आवाज उठने लगी कि जिसने कभी पार्टी के लिए सड़क पर उतरकर संघर्ष न किया हो, जो महज एक मंचीय शायर हो, उसको इतनी तवज्जो क्यों? पार्टी के कई मुस्लिम नेता इन दिनों यह कहते हुए सुने जा सकते हैं कि उनके लिए यह तय कर पाना काफी मुश्किल है कि इमरान का नेतृत्व स्वीकार करें या नहीं? उधर वेस्ट यूपी के इमरान मसूद को दिल्ली का प्रभारी बनाया गया है। इमरान मसूद के नाम पर भी पार्टी के अंदर असहमति के स्वर उठ रहे हैं। इमरान मसूद वेस्ट यूपी में पार्टी के मुस्लिम फेस माने जाते हैं, वह इन दिनों पार्टी में अपनी उपेक्षा से नाराज चल रहे थे। 2022 के चुनाव से पहले उनकी नाराजगी खत्म करने की गरज से ही उनको दिल्ली प्रदेश का प्रभारी बनाया गया है। कांग्रेस के अंदर ही कई नेताओं की राय है कि इमरान मसूद दिल्ली के मिजाज से मैच नहीं खाते हैं। उनके जरिए वहां पार्टी को फायदा होने के बजाय नुकसान हो सकता है। देखने वाली बात होगी कि दिल्ली का प्रभारी बनने के बाद इमरान मसूद की नाराजगी कितनी दूर होती है, क्योंकि उनका भविष्य तो वेस्ट यूपी से ही जुड़ा है।





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