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जीवित्पुत्रिका व्रत की कहानी

भारतीय संस्कृति में पर्व-त्योहारों की भरमार है और सभी पर्व-त्योहारों से जुड़ी कोई न कोई कहानी भी है। इन्हीं व्रत-त्योहारों में से एक ही जीवित्पुत्रिका व्रत यानी जीवित पुत्र के लिए रखा जाने वाला व्रत। मान्यता है कि यह व्रत वे महिलाएं रखती हैं, जिन्हें पुत्र होते हैं। बच्चों की लंबी उम्र के लिए रखा जाता है यह व्रत। कुछ इलाकों में इसे 'जिउतिया' भी कहा जाता है। हिंदू पंचांग के अनुसार यह व्रत आश्विन माह कृष्ण पक्ष की अष्टमी को मनाया जाता है।

इस व्रत को करने वाली महिलाएं आज यानी बुधवार नहाय-खाय के बाद कल से यानी गुरुवार को संतान की लंबी आयु के लिए उपवास रखेंगी और पूजा-अर्चना करेंगी। इसका उपवास निर्जला होता है यानी महिलाएं पानी तक नहीं पीती हैं।

जीवित्पुत्रिका व्रत कथा

जीवित्पुत्रिका-व्रत के साथ जीमूतवाहन की कथा जुड़ी है। गन्धर्वों के राजकुमार का नाम जीमूतवाहन था। वह बड़े उदार और परोपकारी थे। जीमूतवाहन के पिता ने वृद्धावस्था में वानप्रस्थ आश्रम में जाते समय इनको राजसिंहासन पर बैठाया, किन्तु इनका मन राज-पाट में नहीं लगता था। वह राज्य का भार अपने भाइयों पर छोड़कर स्वयं वन में पिता की सेवा करने चले गए, वहीं पर उनका मलयवती नामक राजकन्या से विवाह हो गया।

एक दिन जब वन में भ्रमण करते हुए जीमूतवाहन काफी आगे चले गए, तब उन्हें एक वृद्धा विलाप करते हुए दिखी। इनके पूछने पर वृद्धा ने रोते हुए बताया, 'मैं नाग वंश की स्त्री हूं और मुझे एक ही पुत्र है। पक्षीराज गरुड़ के समक्ष नागों ने उन्हें प्रतिदिन भक्षण हेतु एक नाग सौंपने की प्रतिज्ञा की हुई है। आज मेरे पुत्र शंखचूड़ की बलि का दिन है।

जीमूतवाहन ने वृद्धा को आश्वस्त करते हुए कहा, 'डरो मत, मैं तुम्हारे पुत्र के प्राणों की रक्षा करूंगा। आज उसके बजाय मैं स्वयं अपने आपको उसके लाल कपड़े में ढंककर वध्य-शिला पर लेटूंगा। इतना कहकर जीमूतवाहन ने शंखचूड़ के हाथ से लाल कपड़ा ले लिया और वे उसे लपेटकर गरुड़ को बलि देने के लिए चुनी गई वध्य-शिला पर लेट गए।

नियत समय पर गरुड़ आए और लाल कपड़े में ढंके जीमूतवाहन को पंजे में दबोचकर पहाड़ के शिखर पर जाकर बैठ गए। अपने चंगुल में गिरफ्तार प्राणी की आंख में आंसू और मुंह से आह निकलता न देखकर गरुड़जी बड़े आश्चर्य में पड़ गए। उन्होंने जीमूतवाहन से उनका परिचय पूछा। जीमूतवाहन ने सारा किस्सा कह सुनाया। गरुड़ जी उनकी बहादुरी और दूसरे की प्राण-रक्षा करने में स्वयं का बलिदान देने की हिम्मत से बहुत प्रभावित हुए। प्रसन्न होकर गरुड़ जी ने उनको जीवन-दान दे दिया तथा नागों की बलि न लेने का वरदान भी दे दिया।

इस प्रकार जीमूतवाहन के अदम्य साहस से नाग-जाति की रक्षा हुई और तबसे पुत्र की सुरक्षा हेतु जीमूतवाहन की पूजा की प्रथा शुरू हो गई।