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दुर्गम पहाड़ियां, पथरीले रास्ते, जंगली जानवरों का खौफ, 23 साल से इन्हें पार कर स्कूल जाती है महिला शिक्षक

प्राथमिक विद्यालयों के शिक्षकों पर शुरुआत में छोटे बच्चों का भविष्य गढ़ने की जिम्मेदारी होती है। शिक्षक दिवस पर हम आपको एक ऐसी ही शिक्षिका से मुलाकात करवा रहे हैं, जो बीते 23 साल से पहाड़ पर चढ़कर दुर्गम गांव में बच्चों को पढ़ाने जाती है। इस दुर्गम रास्ते को देखकर अच्छे-अच्छे लोगों का मन डोल जाएगा। मगर 23 सालों में यह शिक्षिका कभी हौसला नहीं हारी है। 45 साल की शिक्षिका का नाम कमलती डोंगरे है। बैतूल से 25 किमी दूर पहाड़ी गांव गौला गोंदी में शिक्षिका कमलती बीते 23 साल से ऐसे ही पथरीले रास्ते का सफर तय कर नौनिहालों की तकदीर संवारने स्कूल तक पहुंचती है।

शिक्षक दिवस पर एमपी की एक महिला शिक्षक की जितनी तारीफ की जाए, उतनी कम है। शिक्षा की अलख जगाने के लिए एक महिला टीचर का जुनून काबिले तारीफ है। नौनिहालों को काबिल बनाने के लिए वह तमाम मुश्किलों को झेलकर स्कूल जाती है। हर दिन वह 25 किलोमीटर दूर पहाड़ी पर चढ़कर स्कूल जाती है।


दुर्गम पहाड़ियां, पथरीले रास्ते, जंगली जानवरों का खौफ, 23 साल से इन्हें पार कर स्कूल जाती है महिला शिक्षक

प्राथमिक विद्यालयों के शिक्षकों पर शुरुआत में छोटे बच्चों का भविष्य गढ़ने की जिम्मेदारी होती है। शिक्षक दिवस पर हम आपको एक ऐसी ही शिक्षिका से मुलाकात करवा रहे हैं, जो बीते 23 साल से पहाड़ पर चढ़कर दुर्गम गांव में बच्चों को पढ़ाने जाती है। इस दुर्गम रास्ते को देखकर अच्छे-अच्छे लोगों का मन डोल जाएगा। मगर 23 सालों में यह शिक्षिका कभी हौसला नहीं हारी है। 45 साल की शिक्षिका का नाम कमलती डोंगरे है। बैतूल से 25 किमी दूर पहाड़ी गांव गौला गोंदी में शिक्षिका कमलती बीते 23 साल से ऐसे ही पथरीले रास्ते का सफर तय कर नौनिहालों की तकदीर संवारने स्कूल तक पहुंचती है।



हमेशा बना रहता है डर
हमेशा बना रहता है डर

जंगली जानवरों की आवाजें, सांप बिच्छू का डर, मूसलाधार बारिश और जेठ की गर्मी भी महिला शिक्षिका को इस रास्ते पर चलने से नहीं रोक पाई। बैतूल से पहले बस के जरिए 10 किमी का सफर, फिर लिफ्ट लेकर 12 किमी की यात्रा और फिर तीन किमी सपाट तो तीन किमी ढलान भरी पहाड़ी उतरना इनका रोज का शगल है। गांव के एकमात्र प्राइमरी स्कूल में शिक्षिका कमलती 23 साल से इसी तरह बच्चों का भविष्य संवारने गांव तक पहुंचती हैं। अफसर भी इनकी तारीफ करते नहीं थकते हैं।



1998 में स्कूल की थी ज्वाइन
1998 में स्कूल की थी ज्वाइन

31 अगस्त 1998 को कमलती ने बतौर शिक्षाकर्मी इस स्कूल में ज्वानिंग दी थी। यही वे 14 साल बाद अध्यापक बनीं और फिर जुलाई 2018 में शिक्षिका बना दिया गया। महज 2256 रुपये की तनख्वाह पर नौकरी की शुरुआत करने वाली कमलती अपने 2038 तक होने वाले रिटायरमेंट तक इसी स्कूल में सेवा देना चाहती हैं। उनके ज्वाइन करने के बाद यहां पास के ही गांव मांडवा कोल के प्यारेलाल चौहान ने बतौर शिक्षा कर्मी यहां ज्वाइन किया।



नदी किनारे अकेले मकान में रही चार साल
नदी किनारे अकेले मकान में रही चार साल

वहीं, 1998 में ज्वानिंग के बाद कमलती में बच्चों को पढ़ाने का जज्बा ऐसा था कि 28 अप्रैल 1999 में हुई शादी के बाद उन्होंने फैसला किया कि वे गांव में ही रहकर बच्चों को पढ़ाएंगी। यहां ताप्ती नदी के किनारे एक खेत में अकेले मकान में रहकर उन्होंने चार साल गुजारे। बेटे का जन्म और उसकी पढ़ाई के चलते उन्हें बैतूल आ जाना पड़ा। अब वे रोज 25 किमी का सफर तय कर गांव पहुंचती हैं।



घर-घर जाकर करवाई है पढ़ाई
घर-घर जाकर करवाई है पढ़ाई

23 साल पहले जब कमलती ने ज्वाइन किया था। तब स्कूल में 60 बच्चे पढ़ते थे, जिन शिक्षकों की यहां ड्यूटी लगती थी। वे नौकरी छोड़कर दूसरी जगह जा चुके है। उनके एक दिन बाद ज्वाइन करने वाले शिक्षक प्यारेलाल चौहान भी 23 साल से यहीं पदस्थ हैं। कमलती ने जिन बच्चों को पढ़ाया, उनमें कुछ सीआरपीएफ में तो कुछ दूसरी शासकीय सेवाओं में हैं। फिलहाल स्कूल में 29 बच्चे पढ़ रहे हैं, जिन्हें कमलती घर घर जाकर पढ़ाई करवाती हैं। गांव की शांता बारस्कर का बेटा बेंगलुरु में सीआरपीएफ में तैनात है। वे बताती हैं कि मैडम की बदौलत ही आज उनका बेटा देश सेवा कर रहा है।



हम गांव को नहीं छोड़ेंगे
हम गांव को नहीं छोड़ेंगे

कमलती बताती है कि जब उन्होंने पहली बार इस गांव में ज्वाइन किया तो उसी दिन तय कर लिया था कि वे इस गांव को नही छोड़ेंगी। वजह सिर्फ यही थी कि गांव पहुंचने के लिए रास्ता इतना दुर्गम पहाड़ी वाला था कि वहां रोज पहुंचने की हिमाकत कोई नहीं करता। कमलती के मुताबिक मैंने यही सोचा कि इस पहाड़ी को चढ़ उतरकर कोई यहां आना नहीं चाहेगा। ऐसे में गांव के नौनिहाल शिक्षा से वंचित रह जाएंगे।




अफसर भी करते तारीफ
अफसर भी करते तारीफ

संकुल के जन शिक्षक राजू आठनेरे बताते हैं कि वे खुद जब निरीक्षण के लिए यहां पहुंचे तो पता लगा कि यहां रोज यह खड़ी चढ़ाई चढ़ना, उतरना और पथरीले रास्ते पर सफर कोई आसान नहीं है। साथी शिक्षक प्यारेलाल चौहान यहां करीबी गांव मांडवा कोल से पहुंचते है। वे बताते हैं कि कमलती की समय पर स्कूल पहुंचने की पाबंदी के वे कायल हैं।





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