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अपनों ने धोखा दिया, गैरों में कहां दम था

भोपाल। कहते हैं कई बार पासा उल्टा पड़ जाता है। यही हाल जूडा की हड़ताल का हुआ है। गांधी मेडिकल कालेज के जूनियर डाक्टरों ने छोटी सी मांग को लेकर हड़ताल शुरू की। उन्हें लगा था कि मांग छोटी है,इसलिए सुनवाई जल्दी हो जाएगी, लेकिन सब कुछ उल्टा पड़ गया। सरकार और अफसरों ने ठान लिया की इस बार जूडा के सामने झुकेंगे नहीं। जूडा भी अड़ा रह गया इस दमखम के साथ कि पूरे प्रदेश में जूडा की हड़ताल हो जाएगी तो सरकार हर बार की तरह घुटने पर आ जाएगी, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। उल्टा जूडा पर कार्रवाई शुरू हो गई। ऐसे में जूडा को पैर पीछे खींचना पड़ा। यह सब ऐसे ही नहीं हुआ। बार-बार जूडा की हड़ताल से अफसर भी परेशान हो गए तो उन्होंने ठान लिया कि जूडा को सबक सिखाकर छोड़ेंगे। फिर क्या था छोटे से आश्वासन पर जूडा को हड़ताल खत्म करनी पड़ी।


आमतौर पर अफसर के फोन की एक घंटी ही मातहत के लिए पर्याप्त होती है। अधीनस्थ अफसर सारे काम छोड़कर साहब को जी, सर बोलता है। यह बात भोपाल में स्वास्थ्य विभाग के दो अफसरों के बीच सही नहीं बैठती। जिले में महकमे एक बड़े अफसर और उनकी एक मातहत के बीच अनबन चल रही है। साहब को अचानक कुछ पूछना होता है तो मैडम को फोन लगाते हैं, लेकिन मैडम का फोन कई बार उठता है नहीं है। वह मिलने पर फोन नहीं उठाने का कारण भी पूछते हैं तो जवाब भी मिलता है। जवाब भी हर बार अलग-अलग रहता है। कई बार तो साहब को यह भी सुनने को मिलता है कि फोन खराब हो गया है। कुछ भी हो मैडम की हिम्मत भी गजब की है कि वह साहब के फोन की घंटी को भी अनसुना कर देती हैं। साहब भी मजबूरी में फोन लगाते रहते हैं।


हर किसी को शहरी कहलाने का शौक होता है। ग्रामीण शब्द जुड़ते ही कइयों में हीन भावना आने लगती है। बात जब अफसरों के कामकाज के बंटवारे की हो तो यहां भी ऐसे ही भाव आते हैं। यही स्थिति भोपाल में स्वास्थ्य विभाग के दो अफसरों के बीच बन गई है। एक साहब जो अभी तक अपने प्रोग्राम में पूरा जिले के मुखिया थे उन्हें ग्रामीण की जिम्मेदारी मिली है। शहर के जिम्मेदारी स्वास्थ्य विभाग से वरिष्ठ अफसर के पद से सेवानिवृत हुए चिकित्सक को मिली है। इन्हें भी यह कार्यक्रम देखने का अच्छा तजुर्बा है। अब ग्रामीण क्षेत्र देखने वाले साहब को इन इलाकों में दौरे के लिए भी जाना पड़ता है। उनके क्षेत्र के लक्ष्य भी अलग हैं। उन्हें अपने क्षेत्र में अच्छा प्रदर्शन दिखाना है, लेकिन यह तो सभी को पता है ग्रामीण क्षेत्रों में योजनाओं पर अमल आसान नहीं है। ऐसे में साहब परेशान से नजर आते हैं।


अब नहीं बजती साहब की घंटी
स्वास्थ्य संचालनालय इन दिनों वीरान सा हो गया है। वजह कोई बड़ा अफसर यहां नहीं बैठ रहा। आयुक्त और संचालक के कमरे की विशेष घंटी भी अब नहीं बजती। ऐसे में राहत में हैं यहां के दूसरे अफसर। बड़े साहब बैठे रहते थे तो वह बेचारे लंच में भी नहीं जा पाते थे। सभी अफसरों को दोनों बड़े साहबों के यहां चपरासी को बुलाने वाली घंटी की पहचान रहती थी। घंटी बचती तो संकेत मिल जाते थे कि साहब बैठे हैं। अब तो मर्जी की बात है जब मन पड़ा तो आए और गए। काम से भी कहीं जाते हैं तो बताकर नहीं जाना पड़ता। उन्हें खुशी इस बात की भी है कि डाट-फटकार से बच जाते हैं। कहा जाता है कि अफसर के आगे और घोड़े के पीछे नहीं आना चाहिए। छोटे अफसरों का सामना इन दोनों बड़े साहब से कम पड़ रहा है।


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