फाइलों पर काम कराने के बादशाह
भोपाल। कुछ दिनों पहले एक विश्वविद्यालय का स्थापना दिवस समारोह मनाया गया। वहां कुलाधिपति से लेकर विभागीय मंत्री तक मौजूद थे। कार्यक्रम खत्म हुआ तो कुलपति महोदय मंत्रीजी के कान में फुसफुसाने लगे। इससे पहले मंच पर भी वे विश्वविद्यालय की खूबियों का बखान कर चुके थे। मंत्रीजी जब चाय-नाश्ता करने लगे तब भी वे चुप नहीं हुए। आखिर में मंत्रीजी ने पूछ ही लिया, आप फाइलों की योजनाएं नहीं हकीकत में क्या किया, वह बताएं।
इतना सुनते ही कुलपति महोदय के चेहरे पर हवाइयां उड़ने लगीं। दरअसल, ढाई साल में उन्होंने सिर्फ योजनाओं की फाइल ही तैयार की है, जमीन पर तो उनका एक भी काम नहीं है, जिसे वे गिना सकें। यही कारण है कि जब भी अवसर मिलता है, वे गुणगान करने में पीछे नहीं रहते हैं। जबकि विश्वविद्यालय में फैकल्टी और संसाधन की कमी के कारण साल-दर-साल विद्यार्थियों की संख्या घटती ही जा रही है।
इस कानाफूसी का राज क्या है...
मंत्रीजी से पारिवारिक रिश्ते हैं। महाविद्यालय की प्राचार्य की वे खास हैं। सेवानिवृत्ति को एक साल है। यानी मौका, दस्तूर और भाग्य सब साथ है। भाग्य इसलिए क्योंकि जब वे समाजशास्त्र विभाग की विभागाध्यक्ष थीं, तो उन्हें विद्यार्थियों को नहीं पढ़ाने पर दूसरे महाविद्यालय भेज दिया था, लेकिन न्यायालय से मिले रोक के आदेश की ऐसी कृपा हुई कि वे अब तक अपने आसन पर बनी हुई हैं। हम बात कर रहे हैं राजधानी के एक स्वायत्तशासी कन्या महाविद्यालय की अध्यापिका की।
महाविद्यालय के आडिटोरियम के लोकार्पण कार्यक्रम में मंत्री के साथ कुछ पलों की उनकी कानाफूसी क्या हुई, चर्चाएं दूर तलक चल पड़ीं। कोई कहने लगा कुलपति बनने का सपना साकार हो जाएगा तो कहीं शेष एक साल की चिंता के चर्चे सुने जाने लगे। खैर, कुलपति का ताज मिलता है या नहीं, यह तो समय बताएगा लेकिन अभी भी बतौर प्रशासनिक अधिकारी रहते उनके जलवे कम नहीं हैं।