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तीन बार विधायक बने लेकिन जीप तक नहीं खरीद सके, राजनीति के संत थे श्रीराम द्विवेदी

अयोध्या: जब राजनीति मे सेवा ईमानदारी और सादगी गायब सी हो गई है और जन प्रतिनिधि बड़ी गाड़‍ियों के काफिले के साथ चलते हैं, तो ऐसे जनप्रतिनिधियों की याद ताजा करना लाजिमी हो जाता है जिनकी ईमानदार छवि आज नजीर के तौर पर कोट की जाती है। खासतौर पर उस समय जब यूपी (UP Election) में चुनावी बयार रफ्तार पकड़ चुकी हो। अयोध्या (Ayodhya) के राजनीतिक इतिहास के ऐसे ही ईमानदार व जन सुलभ जनप्रतिनिधि थे (Satn Shri Ram Dwivedi)। वे कोई साधू महात्मा न होकर राजनीतिक सेवक थे। बाइक रिक्शे से करते थे प्रचार द्विवेदी गांव में अपने चुनाव में रिक्शे, बाइक या फिर किराए की जीप से ही प्रचार करते थे। राजनीति को कमाई नहीं सेवा का साधन मानते थे।सारी जिंदगी राजनीति ही की। तीन बार एमएलए चुने गए पर उनके स्वभाव और सेवा भाव में कोई परिवर्तन नहीं आया। उनके पुत्र व पुत्रियों ने यह कभी नहीं समझा कि वे विधायक की संतान है। राजनीतिक लाभ नहीं उठाया उनका परिवार कोई राजनीतिक लाभ नहीं ले सका। उनके बड़े बेटे आनंद कुमार द्विवेदी बताते हैं कि उनके पिता जब एमएलए थे तो गाड़ी खरीदने के लिए एक लाख रुपए शासन से उनके खाते में भेजा गया था पर इतने में जीप नहीं मिल सकती थी और वे कर्ज लेकर जीप खरीदना नहीं चाहते थे। ऐसे में एक लाख की रकम को पेंशन से कटवा शासन को वापस कर दिया। इस समय स्व श्री राम द्विवेदी की पत्नी को 10 हजार रुपए पूर्व विधायक के आश्रित के तौर पर पेंशन मिल रही है। इलाहाबाद यूनिवर्सिटी से शुरू की छात्र राजनीति श्री राम द्विवेदी ने बीकापुर तहसील के तारून ब्लॉक के बेसिक स्कूल से पढ़ाई शुरू की। उच्च शिक्षा के लिए वे इलाहाबाद यूनिवर्सिटी गए जहां से उन्होंने स्नातक व एलएलबी की शिक्षा ग्रहण की। वहीं से उन्होंने छात्र राजनीति से अपना सफर शुरू किया। जयप्रकाश नारायण का मिला सानिध्य संपूर्ण क्रांति के प्रणेता जयप्रकाश नारायण के आंदोलन में जेल गए। समाजवादी नेता राज नारायण के संसोपा से अयोध्या के उम्मीदवार बनाए गए।लेकिन वे जनसंघ के उम्मीदवार से चुनाव हार गए। 1977 से स्व द्विवेदी बीकापुर विधान सभा सीट पर केंद्रित कर चुनावी मैदान मे संघर्ष करते रहे। नाम के आगे संत जोड़ लिया पहली बार जनता पार्टी से चुने गए। उसके बाद 1980, 1982, 1985 में चुनाव लड़े पर दूसरे नंबर पर ही रहे। कांग्रेस के सीताराम निषाद से हारे।1989 मे वे बीजेपी से लड़े पर उम्मीदवार के विवाद में उन्हें पार्टी का सिंबल नहीं मिला। पर वे जीते। बैलट पेपर पर नाम ऊपर करने के लिए उन्होंने अपने नाम के आगे संत लगाकर नामांकन किया। उसी के बाद वे राजनीति के संत के नाम से पहचाने जाने लगे। 1989 में संत श्रीराम बीजेपी से फिर लड़े और सफलता हासिल की। वे बीकापुर विधान सभा से 7 बार चुनाव मैदान में उतरे थे। आखिरी दौर में संकट से गुजरेडायबिटीज से पीड़ित होने के चलते वे जीवन के आखिरी समय में बेहद परेशानियों से गुजरे। जमापूंजी कभी बनाई नहीं जो उनकी बीमारी के दिनों में परेशानी का सबब बन गई। पीजीआई में डायलिसिस करवाने में काफी खर्च आता था। सरकार से करीब 10 लाख की मदद मिली पर वे बच नहीं सके। ईमानदारी की राजनीति के उन्होने 11 मूल मंत्र दिए थे जो वे अपनी जनसभाओं में बताते भी थे। जन समस्याओं करप्शन व राजनीतिक आंदोलनों का नेतृत्व करते समय वे 32 बार जेल गए। 7जून 2011 को पीजीआई में उनका निधन हो गया। हमें नही लगा कि बड़े नेता की हैं संतानउनकी बेटी शिल्पा कहती हैं कि आज के एमएलए के परिवारीजनों का रूतबा देखकर हम सोचते हैं कि हमें तो कभी पता ही नहीं चला कि हम बड़े नेता की पुत्री हैं। हमारे दोनों भाई में कोई सरकारी नौकरी में नहीं है। प्राइवेट काम कर जीविका चला रहे हैं पर हमे फक्र है हम एक बेहद सरल व ईमानदार नेता की संतानें हैं।


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