मिस्र की ममी को सुरक्षित रखने वाले डिस्प्लेस केस में रखा है हाथ से लिखा हमारा मूल संविधान
नई दिल्ली : दिल्ली में 24 जनवरी 1950 का दिन थोड़ा भीगा-भीगा सा था। बारिश की हल्की फुहारों ने हवा में कुछ ज्यादा ही सर्दी घोल दी थी। इसी सर्द मौसम में संविधान सभा के सदस्य संसद भवन के कंस्टिट्यूशन हॉल (अब सेंट्रल हॉल) में 11 बजे शुरू होने वाली अंतिम बैठक की कार्यवाही शुरू होने की प्रतिक्षा कर रहे थे। संविधान सभा की इस बैठक में दो महत्वपूर्ण अजेंडों पर चर्चा होनी थी। पहला- भारत के राष्ट्रपति का चुनाव जो एक औपचारिक प्रक्रिया भर रह गई थी क्योंकि डॉ. राजेंद्र प्रसाद इस पद के लिए एकमात्र उम्मीदवार थे। दसूरा अजेंडा थोड़ा ज्याद पर्सनल था। उस दिन संविधान सभा के प्रत्येक सदस्य को उस दस्तावेज पर हस्ताक्षर करना था जो स्वतंत्र भारत का भविष्य निर्देशित करेग। वो दस्तावेज था- भारत का संविधान। संसद के पुस्तकालय में रखा है मूल संविधान संविधान सभा के सदस्यों ने संविधान की तीन प्रतियों पर हस्ताक्षर किए। प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू को बैठक से जल्दी निकलना था, इसलिए उन्होंने सबसे पहले और डॉ. राजेंद्र प्रसाद ने सबसे बाद में दस्तखत किए। हस्ताक्षर के लिए संविधान की जो तीन प्रतियां सामने रखी गई थीं, उनमें एक अंग्रेजी भाषा में प्रकाशित थी जबकि दो प्रतियां विशेषज्ञ द्वारा हाथ से लिखी गई थीं। की एक प्रति हिंदी जबकि दूसरी अंग्रेजी में थी। शांतिनिकेतन के कलाकारों ने भारतीय संविधान की इन दोनों हस्तलिखित प्रतियों के हरेक पन्ने को बड़े चाव से सजाया भी था। इन्हें संसद के पुस्तकालय में रखा गया है जिसपर राष्ट्र की इस महान थाती को संरक्षित रखने की महती जिम्मेदारी है। उनका संरक्षण बहुत महत्वपूर्ण है क्योंकि पर्यवारणीय कारणों से ये दोनों प्रतियां कुछ-कुछ डैमेज हो गई हैं। स्याही और रंग फीके पड़ गए हैं। ऊपर से हवा में घुले प्रदूषण के कण और कीड़ों-मकोड़ों का संपर्क कागज को अपूरणीय क्षति पहुंचा सकते हैं। मिस्र की ममीज और हमारे संविधान का है कनेक्शन! भारतीय संसद और मिस्र की सरकार ने 1980 के दशक के मध्य में संरक्षण के तरीकों पर विचार करना शुरू किया। भारतीय संसद ने संविधान की हस्तलिखित प्रतियों को जबकि मिस्र की सरकार ने प्राचीन राजवंश के 27 ममीज को संरक्षित करना चाहती थी। इसी तलाश में मिस्र की सरकार अमेरिका स्थित गेटी कंजर्वेशन इंस्टिट्यूट (GCI) पहुंची। जापान में जन्मे अमेरिकी नागरिक डॉ. शिन माएकावा (Dr. Shin Maekawa) ने ममीज के लिए एक स्टोरेज और डिस्प्ले केस की डिजाइनिंग प्रॉजेक्ट का नेतृत्व किया। इंजीनियर की ट्रेनिंग प्राप्त डॉ. माएकावा जीसीआई जॉइन करने से पहले नासा अधिकृत जेट प्रॉपल्सन लैब में काम कर चुके थे। उन्होंने उन रॉयल ममीज के लिए ऑक्सीजन-फ्री केस की डिजाइनिंग के लिए कठोर मापदंड तय किए। और जब डिजाइन तैयार हुआ तो उसके आधार पर बक्से बनाना बेहद आसान हो गया। उन बक्सों का मैंटनेंस भी कठिन नहीं था और लागत भी ज्यादा नहीं। मूल संविधन के संरक्षण की चिंता उधर, भारत की संसद ने संविधान को रखने के लिए एक केस तैयार करवाने के मकसद से दिल्ली स्थित नैशनल फिजिकल लैबरेटरी (NPL) का रुख किया। एनपीएल के वैज्ञानिक डॉ. हरि किशन ने इस प्रॉजेक्ट की जिम्मेदारी संभाली जो बाद में एनपीएल के क्वांटम फेनोमेना एंड अप्लिकेशंस डिविजन के हेड बने। डॉ. किशन ने बड़ी मेहनत से कांच का एक बक्सा तैयार करने में कुछ हद तक सफलता पाई। लेकिन एक समस्या बनी रह गई कि बक्से के किनारों को कैसे सील किया जाए ताकि वो ऑक्सिजन प्रूफ हो जाए। इसी का जवाब पाने वो फ्रांस गए जहां उन्हें अमेरिका में मिस्र की ममीज के लिए ऐसे ही बक्से बनाए जाने की बात पता चली। 73 वर्षों से यूं सुरक्षित हैं मूल संविधान की प्रतियां डॉ. माएकावा और जीसीआई की टीम ने एक डीस्प्ले केस बना दिया जिसमें ऑक्सिजन की न्यूनतम मात्रा ही प्रवेश कर सकती थी। वर्ष 1993 में जीसीआई और एनपीएल ने संविधान को संरक्षित रखने की आवश्यकता पूर्ति के लिए समझौता किया। एक साल बाद जीसीआई ने हस्तलिखित संविधान की हिंदी और अंग्रेजी, दोनों प्रतियों के लिए एक-एक डिस्प्ले केस अमेरिका से भारत भेज दिया। एक साल की टेस्टिंग के बाद वर्ष 1995 में नाइट्रोजन से भरे इन्हीं डिस्प्ले केस में संविधान की प्रतियां रख दी गईं। तब से एनपीएल के वैज्ञानिक वार्षिक आधार पर दोनों डिस्प्ले केस की जांच-परख करते रहते हैं। संविधान का असली संरक्षण तो हमारे दिलों में ही होगा डॉ. शिन माएकावा और डॉ. हरि किशन की लगन से 73 साल पहले तैयार हस्तलिखित संविधान की दोनों प्रतियां अगली पीढ़ियों के लिए संरक्षित हो गईं। ये तो संविधान के भौतिक स्वरूप के संरक्षण के लिए किया गया, लेकिन संविधान का असली संरक्षण तो हरेक भारतीयों को अपने दिलों में करना होगा। जैसा की पूर्व सुप्रीम कोर्ट जज जस्टिस एचआर खन्ना ने लिखा, 'संविधान कागज का पुलिंदा मात्र नहीं, यह जिंदगी जीने का तरीका है। सतत निगरानी ही आजादी की कीमत है और आखिर में इसका एकमात्र संरक्षक आमजन ही हैं।' जज जस्टिस एचआर खन्ना ने तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी द्वारा देश में आपातकाल की घोषणा के वक्त इन्हीं शब्दों में नागरिकों की स्वतंत्रता को सर्वोपरि करार दिया था।
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